Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 144
________________ Xxxxपरीषह-जयीxxxxxxxx ___"नहीं धायमाँ ? अब तो या सुदर्शन के साथ शयनसुख पाऊँगी या मृत्युकी सैय्या पर ही लेदूँगी । " रानी की इस जिद से धायमाँ भी दुखी और चिन्तित हो उठी। बचपन से जिसे गोद में खिलाया था -उसे कैसे मर जाने दे ? रात भर धाय इसी चिन्ता में डूबी रही कि आखिर क्या करे । महल के बाहर सात-सात परकोटे व विशाल दरवाजे हैं । किसी का गुप्त रूपसे महल तक लाना भी संभव नहीं । आखिर उसने अपनी कूटनीति से मार्ग निकालने का उपाय सोचा । " भाई प्रजापतिजी आप पूर्ण पुरूष के आकार की सुन्दर सात पुरूष मूर्तियाँ तैयार कर दें । महारानीजी आपको मुँह मागा इनाम देगी ।" धाययाँ ने कुम्हार को आदेश दिया । कुम्हार ने महारानी का आदेश स्वीकार कर सात मिट्टी की पुरूष मूर्तिया तैयार की । “रुक जाओ कैन अन्दर जा रहा है ? द्वार पाल ने मिट्टी की मूर्ति ले जाते हुए धाय माँ को रोका । " “क्या मेरा भी महल में जाना निषिद्ध है ?" । “हाँ रात्रि में राजमहल में तुम भी नहीं जा सकती । "द्वारपाल के रोकने पर भी धाय मां ने बलपूर्वक प्रवेश करने की चेष्टा की । इसी रोक-टोक में मूर्ति गिरकर टूट गई। _“द्वारपाल तूने इस कामदेव की मूर्ति को तोड़कर रानी का कोप मोल लिया है । रानी का आज उपवास था और उसे इसकी पूजा करनी थी । मैं रानी से तेरी शिकायत करके तुझे सहकुटुम्ब दण्ड दिलवाउँगी।" धाय मां के इस कथन को सुनकर द्वारपाल आगत कष्ट के भय से कांप उठा । और धाय मां से माफी मांगने लगा और कहा कि - "भविष्य में ऐसी गलती नहीं होगी । " इस प्रकार धाय मां ने अपने त्रिया चरित्र एवं कुटिल नीति से अपनी धाय होने के पद का दुरूपयोग करके सभी द्वारपालों को उसने अनुकूल कर लिया । सभी द्वारपालों को उसने यह विश्वास दिलाया कि वह रानी की पूजा के लिए मिट्टी की मूर्तियाँ ही ले जायेगी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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