Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 160
________________ परीपह-जयी रहे थे कि कैसा वैराग्य जन्मा है । अनेक मुँह, अनेक बातें हो रही थीं । गजकुमार निश्पृहता से आभूषण वस्त्र त्याग रहे थे । ज्यों-ज्यों वस्त्र उतर रहे थे, अन्तर का संसार भी छूटता जा रहा था । सौन्दर्य के प्रतीक, सुन्दरियों को लुभाने वाले बाल वे घास-फूस की तरह लोंच रहे थे । गजकुमार की इस दृढ़ता और निश्पृहता को देखकर लोग आँसू बहा रहे थे । जय-जयकार की ध्वनि के साथ वैराग्य की अनुमोदना कर रहे थे । अब सामने युवराज गजकुमार की जगह विराजमान थे, मुनि गजकुमार । मुनि गजकुमार कल का विलासी आज का वैरागी था । चंचल इन्द्रियाँ, संयम से बंध चुकी थीं । सोने-चाँदी के बर्तनों में खानेवाले हाथों को पात्र बनाकर वे रूखा-सूखा भोजन कर रहे थे । मखमल के विस्तर में सोनेवाला जमीन पर सो रहा था । जो पांव कभी मखमल से नीचे नहीं चले थे वे आज नंगे पैर ऊबड़ खाबड़, पथरीली जमीन पर विहार कर रहे थे । पांव से खून बहने लगता पर इस तपस्वी को इसका ध्यान ही कब था ? देह ता ममत्व तो कब से ही छूट गया था ? समग्र चेतना आत्म केन्द्रित हो गई थी । मुनि गजकुमार, भगवान के साथ अनेक देशों, नगरों में विहार करते रहे । पश्चात अकेले अनेक नगरों में विहार करते हुए, लोगों को सच्चे 'जैनधर्म का उपदेश देते हुए लोगों को सत्पथ पर लगाते हुए, गिरनार पर्वत के जंगलों में पहुँचे । मुनि गजकुमार ने वर्षों तपाराधना करके अपने कर्मों का क्षय किया । अपने दिव्यज्ञान से जब उन्होंने ज्ञात किया कि अब आयु के कुछ ही दिन बाकी हैं तो सल्लेखना धारण कर आत्मा में अधिकाधिक लीन होते गए । उन्होंने मृत्यु को भी उत्सव की भांति अपनाने का मानो संकल्प ही कर लिया । मुनि गजकुमार पूर्ण सन्यास धारण कर ध्यानस्त होकर तप में लीन हो गए । उन्हें तो देह का यह भी ध्यान नहीं रहा कि उस पर जीव जन्तु रेंग रहे हैं । जंगली पशु शरीर खुजला रहे हैं । गर्मी-सर्दी शरीर को प्रतिकूल बन रहे हैं । मुनि गजकुमार देह से • देहातीत हो गए थे । उनका ध्यान आत्मामें सिमट कर प्रभामण्डल रच रहा था। शरीर क्षीण हो रहा था, पर आत्मा उज्जवल बनती जा रही थी । I जब से पांसुल सेठ को यह ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी की इज्जत लूटने वाला दुष्ट युवराज गजकुमार दीक्षित हो गया तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ । वह तो सोचने लगा कि यह भी दुष्टता की ही कोई चाल होगी । वह जहाँ भी गजकुमार मुनिवेश में विहार करते उनके ही आसपास चलता रहता । उसके मन में निरन्तर बदले की आग धधकती रहती । सोते-जागते, उठते-बैठते खाते Jain Educationa International १५९ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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