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परीषह - जयी
कर समझाने का आग्रह किया ।
मित्रों ने एकांत में गजकुमार को समझाने का प्रयत्न किया । पुराने किस्से सुनाने चाहे | भौड़े मजाक भी करने का प्रयत्न किया। पर, सब बेकार ! जो गजकुमार इन बातों को रस पूर्वक सुनता था - रसिक बातें करता था । आज उसने ये बातें सुनने से भी इन्कार कर दिया । उल्टे उन मित्रों को समझाया
"मित्रों हम लोग आज तक अंधकार में थे । भोग-विसाल और वासनाओं की तृप्ति के नाम पर हमने व्यभिचारियों की जिन्दगी बिताई है । पर ये वासनाएँ कभी तृप्त नहीं हुईं, और भी भड़कती रहीं । हमने कितनी मासूम, मजबूर, नारियों के सतीत्व को नष्ट कर अपने चरित्र को नष्ट किया है । यह पाप हमें एक नहीं - भव-भवान्तर तक दुर्गति में दुखी करेगा । मित्रों ! अभी देर नहीं हुई । जागे तभी से सबेरा समझो । नादानी में जो हो गया उस पर पश्चाताप करो । अपने भव को सुधारने के लिए आत्मचिन्तन करो | ब्रह्मचर्य की शरण लो । इस आत्मा को ब्रह्ममय बनाओ ।
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गजकुमार की बातें मित्रों के हृदय में हलचल मचा रही थीं । एक नया सूर्य उनकी कलुषित आत्मा को आलोकित कर रहा था । वे सभी सत्य को जान रहे थे और सबके आश्चर्य के बीच उन सभी मित्रों ने भी मानों एक स्वर में कहा - "गजकुमार यदि हम तुम्हारे साथ पाप में भागीदार थे तो अब मुक्तिपथ में भी तुम्हारे हम साथी बनेगें । हम सब इसी समय तुम्हारे समक्ष ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते हैं । तुम्हारे साथ ही हम भी जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर चलेंगे ।
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युवराज गजकुमार एवं सभी मित्र अपने परिवार से आज्ञा लेकर उसी उद्यान में पहुँचे जहाँ प्रभु नेमीनाथ ससंघ विराजमान थे ।
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उद्यान में जैसे पूरा राज्य ही उमड़ पड़ा था । लोग भक्ति कौतुक से भरे हुए थे । लोग देख रहे थे सुकुमार युवराज और उनके युवामित्रों को जो इस कोमलवय में, भोग के सुख को छोड़कर कठिन तपस्या के पथानुगामी बन रहे थे । कोई इसलिए रो रहा था कि ये कोमल बच्चे इस दुर्गम पथ पर कैसे चलेगें ? कुछ शंकित थे कि यह लड़के इस पथ पर चल भी पायेंगे । कुछ सराहना कर
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