Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

View full book text
Previous | Next

Page 156
________________ -**-*-* -*-* परीपह-जयी* * दिव्यवाणी- श्रवण का अवसर मिला था | गुरु गंभीर वाणी में प्रभु उपदेश दे रहे थे – “भव्यजीवों ! देह का सुख सच्चा सुख नहीं है । अनन्त जन्मों से यह जीव इस शरीर के सुख के लिए अनेक उपाय करता रहा । परन्तु न तो इसे रोगी होने से बचा सका और न बुढ़ापे या मृत्यु से ही बचा सका । मनुष्य ने शीलव्रत को तोड़कर भोग-विलास के लिए कुशील का आचरण किया । वह व्यभिचारी बना। उसने बहन-बेटी के भेद को नहीं जाना । काम भोगी मनुष्य कौऐ और गीध की भांति रूधिर और मांस के शरीर को नोचते रहे । ज्यों-ज्यों वह वासनाओं के वशीभूत हुआ, त्यों-त्यों उसकी कामाग्नि और भी भड़कती रही । अनन्त छिद्रों से फूटा हुआ यह शरीर रूपी घड़ा उसे अपने रूपजाल में फँसाये रहा । यह मनुष्य इस कामतृप्ति की एक शहद रूपी बूंद के लिए संसार के महानतम कष्टों ,भयों और भविष्य के कष्टों एवं दुर्गति के कष्टों से अनजान रहा। बन्धुओं ! इस कुशील के कारण मनुष्य मानसिक रूप से दूषित हुआ और शरीर से अपवित्र और रोगी बना । यदि हम सच्चा सुख चाहते है तो हमें इसी शरीरी सुख की कामनाओं से मुक्त होते हुए महान ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । गृहस्थ के रूप में हम एक पत्नी व्रत के धारक बने । और सदचरित्र को अपनायें यह ब्रह्मचर्य का प्रथम सोपान है । अपनी पत्नी के सिवाय अन्य सभी स्त्रियों को उम्र के अनुसार माँ ,बहन और बेटी समझे । क्रमशः ब्रह्मचर्य का पालन करते हए संसार को त्यागकर अपने ब्रह्मरूपी आत्मा में रमण करें । यही सच्चा शील धर्म है । यह मुक्ति का पंथ है । " महाराज ने शील के समर्थन में अनेक ब्रह्मचर्य व्रत के धारकों की कथाएँ उदाहरण के रूप में सुनाई। भगवान का यह उपदेश लोग गंभीरता से सुन रहे थे । उपदेश रूपी स्वातिबूंदें उनके मन रूपी सीप में मानों मोतीका रूप धारण कर रही थी । लोग मंत्र मुग्ध थे । अनेकों हृदय ब्रह्मचर्य के पालन को लालायित हो उठे । भगवान का उपदेश पूर्ण होने पर लोगों ने उनकी भावपूर्ण स्तुति की। धीरे-धीरे लोग अपने निवास को लौटने लगे । प्रायः पूरा उद्यान ही खाली हो गया । पर गजकुमार तो ऐसा विचारों में खो गया कि उसे पता ही नहीं चला कि कब प्रवचन पूरा हुआ और कब लोग अपने घरों को लौट गये । भगवान की वाणी का प्रभाव उसके मन-मस्तिष्क को मथने लगा । वह अपने ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162