Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ Xxxxxxxx परीषह-जयी Xxxxxxxx ही मन जलभुन कर खाक हो गई । फिर भी बोली – “महारानी जी मैंने सुना है कि सुदर्शन तो नपुंसक है । उसके पुत्र कैसे हो सकता है ।" “कपिला तुझे अवश्य धोखा हुआ है । यह किसी की फैलाई हुई । सोद्देश्य अफवाह है । अरे मैंने सुदर्शन को देखा तो नहीं पर उसके रूप और गुण की प्रशंसा सुनी है । भला ऐसा परमपुरूष का पुरूष कैसे हो सकता है । ''रानी ने अभिप्राय व्यक्त किया । कपिला ने जैसे सब कुछ समझ लिया । उससे पिंड छुड़ाने हेतु ही सुदर्शन उससे झूठ बोला था । वह द्वेष भाव से जल उठी । सुदर्शन से बदला लेने का दुर्भाव उसके मन में पैदा हुआ । उसने अपनी एवं सुदर्शन की सारी बात अपनी सखी रानी से कहकर सुदर्शन के रूप की चर्चा खूब बढ़ा-चढ़ा कर कही । रानी के काम भाव को प्रसंशा के घृत से और भी भड़का दिया । “रानी तुम्हें अपने रूप और चातुर्य पर अभिमान है । मैं तुम्हें तभी चतुर मानूँगी जब तुम सुदर्शन को अपना अंकशायी बनाकर कामतृप्ति कर सको।” कपिला ने रानी को उत्तेजित करते हुए कहा । अब रानी को वसंतोत्सव में कोई आनंद नहीं था । उसका रस ही उड़ गया था । बस उसे तो सुदर्शन का संसर्ग ही चाहिए था । वह वसंतोत्सव को बीच में ही अस्वस्थ होने का बहाना करके महल में लौट आई । उसके चेहरे पर उदासी छा गई । देह मलीन हो गया । वह अपने कक्ष में दुःखी होकर लेट गई । “क्या बात है बेटी पण्डित धाम ने प्यारसे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा। "माँ ... " कहकर रोते हुए धायकी छाती में मुँह छिपाकर रानी सिसकियाँ लेकर रोने लगी। “बेटी आखिर बात क्या है ? मुझे बता ।" "धाय माँ मैंने सेठ सुदर्शन के रूप के बारे में सुनाया था और आज छतपर से उसको देखभी लिया । मेरे हृदय में उसका रूप तीर सा तिरछा होकर चुभ गया है । यदि सुदर्शन मुझे नहीं मिला तो मैं जहर खाकर सो रहूँगी।" "बेटी तुझे ऐसी बात शोभा नहीं देती । तू राजरानी है । यदि महाराज इसे जानेंगे तो तेरा क्या हाल होगा । दूसरे बेटी सुदर्शन बड़ा ही चरित्र निष्ट , एक पत्नीव्रत का धारक है । वह अपनी जान तो दे सकता है पर कभी पर स्त्री सेवन का पाप नहीं करेगा । बेटी त उसका ख्याल छोड़ दे।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162