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परीषह-जयी- - साथ विषय भोग करना ही पड़ेगा ।'' कहते-कहते देवदत्ता ने मुनि को उठाकर पलंग के ऊपर रख दिया ।
मुनि सुदर्शन ने इसे उपसर्ग मान कर यह प्रतिज्ञा की कि जब तक यह उपसर्ग दूर नहीं होता तब तक मैं आहार ग्रहण नहीं करूँगा । और यह भी प्रतिज्ञा करता हूँ कि कभी नगर में प्रवेश नहीं करूँगा । इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे सन्यास ग्रहण कर सामायिक में लीन हो गए | "तीन दिन तक देवदत्ता और पण्डिता धाय कामोद्दोपक उपसर्ग करती रही । परन्तु सुमेरू की तरह दृढ़ सुदर्शन मुनि को चलित नहीं कर सकी । आखिर थककर क्रोध से उन्होंने मुनि सुदर्शन को उसी मुद्रा में उठाकर स्मशान में रखवा दिया ।
स्मशान में मुनि सुदर्शन समाधि में लीन हैं । तभी आकाशमार्ग से विमान में जा रही व्यन्तरी जो पूर्वजन्म में रानी अभयमती थी । उसका विमान रूक गया। उसने जैसे ही नीचे देखा तो क्रोध से बोलने लगी – “अरे यह तो वही सुदर्शन है । जिसके कारण मुझे आत्महत्या करनी पड़ी थी । अरे दुष्ट उस समय तो किसी यक्ष ने तेरी रक्षा की थी । लेकिन अब देखती हूँ कि तुझे कौन बचाता है ।" क्रोध से भरी बदले की दुर्भावना से प्रेरित होकर वह अनेक उपद्रव करने लगी । मुनि सुदर्शन पर ज्यों ज्यों उपसर्ग होते त्यों-त्यों उनकी दृढ़ता और भी बढ़ती जाती । और देखते ही देखते मुनि सुदर्शन को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। देवों ने गन्धकुटी रूप समवशरण की रचना की ।
मुनि केवली सुदर्शन के इस अतिशय को देखकर व्यन्तरी पण्डिता धाय और देवदत्ता को पाश्चाताप हुआ । उनकी दृष्टि बदली । उन्होंने आर्यिका दीक्षा ग्रहण की । मनोरमा ने भी दीक्षा ग्रहण की ।
केवलज्ञान प्राप्तकर केवली सुदर्शन विहार करते हुए लोगों को मोक्ष मार्ग प्रशस्त करते रहे । अन्त में समाधिमरण पूर्वक इस नश्वर देह को छोड़कर मोक्ष पद के अधिकारी बने ।
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