Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 142
________________ Xxxxxxxपरीषह-जयीXXXXXXX "लेकिन भाभी मैं मजबूर हूँ । मैं देखने में सुन्दर अवश्य हूँ पर कुदरत ने मेरे साथ मजाक किया है मैं पुरूषत्वहीन नपुंसक हूँ । " “क्या ? आश्चर्य से कपिला की आँखें फटी की फटी रह गई । वह निराश सी होकर पलंग पर ही गिर पड़ी । " सुदर्शन ने इस प्रकार झूठ कहकर अपनी जान और चारित्र की रक्षा की। आज वसंतोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जा रहा था । सारा नगर ही उद्यानों में उमड़ पड़ा था । बासंती रंग तन-मनको रंग रहा था ! फूलों की सुगंध से आकृष्ट भ्रमर समुदाय गुनगुना रहा था । कोयल की कुहुक मन को प्रसन्न कर रही थी ।गीतों का स्वर बाँसुरी में गूंज रहे थे । फागुन का मीठा वातावरण मन को लुभा रहा था । पीत-परिधानसज्ज धरती भी यौवन से छलक उठी थी । किशोर-किशोरी ,युवा-युवतियाँ बसंतके रंगसे रंगीन हो उठे थे । कामदेव के पंचबाण हृदयों को वेध रहे थे । उद्यान में आज विशेष आयोजन था । विशेष रोशनी की झिलमिलाहट हो रही थी । आज स्वयं महाराज , उनकी महारानी अभयमती, अपनी पुरोहित सखी कपिला के साथ वसंतोत्सव की स्वयं शोभा बनी हुई थी । काम के बाण उसे विक्षत कर चुके थे। - “सखी कपिला देखी यह कौन सौन्दर्यशालिनी युवती है । जिसकी गोद में इतना सुन्दर शिशु किल्लोल कर रहा है ।" एक सुन्दर सी देवी को पुत्र सहित देखकर रानीने अपनी सखी कपिला से पूछा । “महारानी मैं जानती तो नहीं पर यह कोई उच्चपरिवार की कुलवधू लगती है । देखो शिशु के साथ वह और भी सौन्दर्य शालिनी गरिमामय लग रही है । जैसे सच ही बालक को धारण कर धरती पर अवतरित हुई है । " .. “मैं जानती हूँ | ये हैं नगर सेठ सुदर्शन की धर्मपत्नी मनोरमा । और ये हैं उनके पुत्र सुकांत । ''पास खड़ी एक अन्य सखी ने परिचय दिया । “क....या.... ? " आश्चर्य से कपिला का मुँह फटा रह गया । वह मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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