Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 141
________________ Hindiपरीपह-जयी Xxxxxxxx ___ “स्वामी आपके मित्र कपिल अश्चस्थ हैं । आपने उनकी खबर तक नहीं ली । वे आपके नाम की ही रट लगाये हुए हैं ।" दासी ने उदासी का भाव व्यक्त करते हुए कहा । “अरे मेरा मित्र अश्चस्थ है -मुझे पता ही नहीं । किसी ने मुझे समाचार भी नहीं दिया । अन्यथा मैं अभी तक उससे दूर कैसे रहना । चलो दासी मैं अभी चलता हूँ ।” कहते हुए सुदर्शन ने कपिल के घर में प्रवेश किया । "अरे मित्र कपिल तुम कहाँ हो । तुम्हें क्या हो गया है ? " " वे ऊपर शयन कक्ष में हैं ।” दासीने इशारे से निर्देश किया । सुदर्शन जल्दी-जल्दी मित्र के हाल जानने को ऊपर की मंजिल पर पहुँचकर उसके शयन कक्षमें पहुँचा | वहाँ उसने देखा कि उसका मित्र रजाई ओढ़े मुँह ढ़के पड़ा है। __ “क्यों भाई कपिल तुम्हें क्या हो गया है ? मुझे समाचार तक नहीं दिया। कहते-कहते सुदर्शन ने उसके सिर पर हाथ रखना चाहा । तभी उसका हाथ पकड़कर सोते हुए व्यक्तिने अपनी छाती पर रखा । छाती पर हाथ का स्पर्श होते ही सुदर्शन को लगा एक साथ अनेक बिच्छुओं ने डंक मार दिया है । उसने विद्युतगति से हाथ हटाया और साथही रजाई भी हटादी । उसकी आँखें फटी रह गई जब उसने देखा कि कपिल के स्थानपर उसकी पत्नी सोने का ढोग करके पड़ी है।" "अरे भाभी तुम ?" “हाँ मेरे प्यारे सुदर्शन ! तुम्हें पाने के लिए ही मुझे यह नाटक करना पड़ा है । तुम्हारा रूप मेरी आँखों में सदैव झूमता रहता है । तुम्हारी स्मृति मेरे मन को मथती रहती है । तुम्हारा संगम मेरी इच्छा है । आओ प्रिय मेरे साथ भोगभोगो।' अंगड़ाई लेकर दोनों बाहें सुदर्शन के गले में डालते हुए कपिला ने कहा। “भाभी तुम क्या कह रही हो । भाभी तो माँ के समान होती है । तुम विकारों से पीड़ित हो । यह सब क्षणिक कामुकता विवेकहीन बना देती है । मुझे क्षमा करो । भाई कपिल कहाँ है । " “प्यारे यह समय उपदेश का नहीं है । आओं मेरी कामाग्नि को तृप्त करो। तुम्हारे मित्र तो एक सप्ताह के लिए परदेश गये हैं । " पुनः कपिला ने सुदर्शन को आलिंगन में बाधने का प्रयास किया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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