Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 139
________________ xxxkkk परीपह-जयी ******* "प्रिय मित्र सेठ वृषभदास तुम्हें याद है लगभग बीस वर्ष पूर्व जब तुम्हारा पुत्र दो वर्ष का था । तब मैंने तुमसे कहा था कि यदि मेरे घर पुत्री का जन्म होगा तो मैं तुम्हारे पुत्र को अपना दामाद बनाऊँगा, आज वह शुभ वेला आ गई है । मैं अपनी पुत्री का रिश्ता लेकर तुम्हारे द्वार पर आया हूँ।" "बंधु सागरदत्त तुमने तो मेरे मुँह की बात ही छीन ली । मुझे सब कुछ याद है । मित्र प्यार के ऐसे रिश्तो को कौन भूल सकता है । मैं तो स्वयं तुम्हारे घर यही तय करने आने वाला था । "कहकर वृषभदास सागरदत्त के गले ही लग गये । दोनों मित्र परस्पर छाती से लगे मित्रता को रिश्तेदारी में बदलने के शुभ योग से प्रसन्नता के सागर में डूब गये । दोनों के हृदय की धड़कने मानों एक दूसरे के भावों को पढ़ रही थी । दोनों मित्र प्रसिद्ध ज्योतिषी श्रीधर के पास पहुँचे । विवाह का मुहूर्त निकलवाया गया (योग्य समय पर विशाल अतिथियों की उपस्थिति में सुदर्शन की सगाई मनोरमा से कर दी गई। कुछ माह पश्चात धूमधाम से दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया । सुदर्शन और मनोरमा की मन चाही मुराद पूरी हो गई । दोनों की जोड़ी रति-कामदेव सी पूरे नगर को आकर्षित करती रही । दोनों अपने जीवन को बासंती रंगो से भरने लगे । जीवन सुखमय और धर्ममय रूप से व्यतीत होने लगा । उनके प्रेम के प्रतीक स्वरूप सुकान्त नायक पुत्र ने जन्म लिया । सेठ वृषभदास ने व्यापार का बोझ सुदर्शन के कंधो पर डाला और जिनमती ने मनोरमा को घर की रानी ही बना दिया । सेठ-सेठानी का अधिकांश समय जिनभक्ति में व्यतीत होने लगा। चंपापुर के उद्यान में स्थित जिनमंदिर में वर्षों पश्चात विहार करते हुए महर्षि समाधियुक्त मुनि ससंघ पधारे । अवधिज्ञानी चारित्रधारी-परीषहजयी मुनि महाराज के आगमन के समाचार को ज्ञातकर महाराज-महारानी सेठसेठानी एवं पूरा राजपरिवार,दरबार ,श्रावकगण विशाल संख्या में उनके दर्शनार्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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