Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 138
________________ परीपह-जयी "काकाजी मैंने कल पूरी जाँच पड़ताल की । तो पता चला कि वह श्रेष्टीवर्ग सागरदत्त की कन्या मनोरमा है । जो रूप- गुण का भंडार है । वही हमारे मित्र का दिल चुरा कर ले गई है।" कपिल ने रहस्योद्घाटन करते हुए सबकुछ कह दिया जो उसने पता चलाया था । सत्य को ज्ञातकर सेठ जी का मन प्रसन्नता से भर गया । उनका मन बल्लियों उछलने लगा । वे जैसे दौड़ते हुए घर पहुँचे । सारा विवरण पत्नी को सुनाया । सेठानी भी इस रहस्य को जानकर विह्वल हो उठी । बहू की ललक उनके मन में सुगबुगा उठी । सेठ वृषभदास को याद हो आया वह भूतकाल जब उनके मित्र श्रेष्ठी सागरदत्त ने स्वयं ही तो उनके शिशु सुदर्शन को देखकर कहा था – “सेठ वृषभदास यदि मेरी पत्नीने पुत्री को जन्म दिया तो मैं तुम्हारे ही इस सुदर्शन से उसका विवाह करूँगा । इसे ही अपना जमाता बनाऊँगा । " वर्षों पूर्व की बातें विस्मृति के गर्त में धूमिल पड़ गई थीं। पर आज सुदर्शन की उदासी के कारण सत्य की धूल झाड़ दी थी । उधर मनोरमा भी सुदर्शन को देखकर उसे नयनों के द्वार से हृदय-मंदिर में प्रतिष्टित कर चुकी थी । यौवन की उर्मियों में बस सुदर्शन ही झूल रहा था । दिल-दिमाग पर वही छा गया था । मनोरमा की बेचैनी उसकी सखियों से छिपी न रही । वे लोग भी सखी के मनोभावों को जानकर आँखों की आँखों में इशारों से सब कुछ जानकर प्रसन्न हुई । रति पर काम के बाण चल चुके थे । वे सब सुदर्शन के रूप--गुण का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन कर उसे और भी काम - पीड़ित कर रही थी । आँखों से दूर होने पर भी सुदर्शन मनोरमा की आँखों में ही बस चुका था । सखियों के माध्यम से मनोरमा की माता एवं माता के माध्यम से सेठ सागरदत्त भी पूरी बात ज्ञात कर प्रसन्नता से भर गये । उन्हें वर्षों पूर्व का अपना ही कथन याद हो आया । उन्हें लगा कि उनकी वर्षों की साधनापूर्ण होने को है । "आइए सेठ सागरदत्त जी द्वार पर सेठ सागरदत्त के रथको आया देखकर सेठ वृषभदास ने स्वागत के स्वरमें कहा । सेठ सागरदत्त को ससम्मान हवेली के दीवानखण्ड में सेठ वृषभदास ले गये । कुशल क्षेम के पश्चात उनके आने का कारण जानने की जिज्ञासा व्यक्त की । "" १३७ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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