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Artin परीषह-जयी*-*-*-*-*-*-*-* पुत्र गुण और रूप के रत्नों का भण्डार होगा । अग्नि यह सूचित करती है कि तुम्हारा पुत्र तप से कर्मरूपी विकारों को नष्ट कर मुक्ति प्राप्त करेगा । तुम्हारे पुत्र की कीर्ति तीनों लोको नें व्याप्त होगी ।"
महाराजश्री के मुख से जन्म लेने वाले पुत्र के लक्षणों को जानकर पतिपत्नी अति प्रसन्न होते हुए ,मुनि श्री को वन्दन करने लगे ।
"महाराज क्या हम जान सकते है कि यह भव्य जीव कौन है ? और इसका पूर्वभव क्या है ? कृपया बताने का कष्ट करें ।'सेठ वृषभदास ने महाराज से पुनः प्रार्थना की।
“श्रेष्ठी वृषभदास यह तुम्हारा ही सुभगनाम का ग्वाला है जो तुम्हारी सेवा करता था । एक दिन संध्या के समय जब यह ग्वाला जंगल से घर लौट रहा था रात्रि हो चुकी थी, माघ की ठण्डी अपना प्रकोप बढ़ा रही थी । मार्ग सुनसान थे। लोग अपने घरों में दुबके पड़े थे । ग्वाला भी शीघ्र अपने घर पहुँचना चाहता था। लेकिन उसके पांव एकाएक थक गए ,उसने देखा कि इस दाँत किट-किटा देनेवाली ,शरीर को बर्फ बना देने वाली ठण्डी में एक दिगम्बरावस्था में मुनि महाराज खुले आकाश के नीचे सामयिक में लीन हैं । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और मन में यह विचार भी आया कि ये विचारे कैसे जीवित रहेंगे ? महाराज के प्रति उसके मन में दया का शुभ भाव जन्मा । वह जल्दी-जल्दी लगभग दौड़ता हुआ अपने घर गया । वहाँ से कुछ सूखी लकड़ियाँ लेकर वापिस आया | उसने महाराज के पास लकड़ियाँ जलाई। रात भर मुनि महाराज को अग्नि से तपाता रहा और स्वयं ताप कर रात्रि व्यतीत करता रहा । आत्मध्यान में लीन मुनि महाराज तो जैसे शीत और उष्ण दोनों से दूर थे । वे तो देह से ऊपरं आत्मा में स्थिर हो चुके थे । प्रातः काल सूर्य की किरणों ने जब महाराज के चरणों में वन्दना की तो वे पुनः देह में लौटे । करूणामय नेत्र खोले और अपने सामने बैठे हुए ग्वाले तथा जलती हुई अग्नि को देखकर सबकुछ समझ गए । उनकी वात्सल्यमयी दृष्टि की किरणों से ग्वाले का रोमरोम पुलकित हो उठा । उसने दोनों हाथ जोड़कर विनय से अपना मस्तक झुका दिया । महाराज का आशीर्वाद के लिए सिर पर रखा हाथ मानों उसमें नये कंपन उत्पन्न करने लगा | उसकी चित्तवृत्तियों में निर्मलता आई । ___"उठो भव्य आत्मन ! मैं तुम्हें यही शिक्षा देता हूँ कि तुम जब भी किसी
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