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परीपह-जयी
सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण प्राप्त कर विभिन्न स्वर्गो में देव हुए ।
मुनि जंबूस्वामी ने साधु के महाव्रतों का पालन करते हुए बारहव्रतों का पूर्ण रूपेण पालन किया । द्वादश अनुप्रेक्षा भावों को भाते हुए, परिषहों को प्रसन्नचित्त सहन करते हुए कठिन तपाराधना की । यह घोर तपस्या बराबर अठारह वर्षों तक चलती रही । देह तो सूख गई पर चेहरे की कांति और आत्माकी शक्ति अनेक सुनी वृद्धिगत हुई ।
अठारह वर्ष के पश्चात गणधर सुधर्मास्वामी निर्वाणको प्राप्त हुए । उसी दिन दुर्धरतप धारी जंबूस्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई ।
इस काल की यह अनुपम व अंतिम घटना थी । जंबूस्वामी को केवलज्ञान होते ही स्वर्ग के देवता प्रसन्नता से नाच उठे । उन्होंने विविध प्रकार से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की । लोगों को इन केवलज्ञानी जंबूस्वामी का धर्मलाभ मिले अतः धर्मसभा का पूरे आर्यखण्ड में आयोजन किया ।
अठारहवर्षों तक केवली जंबूस्वामी ने इन धर्मसभाओं में अपने उपदेश से लाखों-करोड़ों लोगों को धर्मोपदेश देकर आत्मकल्याण के मार्ग पर प्रशस्त किया ।
जंबूस्वामी अपने देहत्याग का काल निकट जान कर सल्लेखना धारण कर बारह प्रकार के महातप में लीन हो गये । एवं विपुलगिरि से अपने कर्मों का क्षय कर मोक्षगामी बने ।
जंबूस्वामी के मोक्षगमन के पश्चात यतिवर विद्युच्चर ससंघ ताप्रलिप्त पधारे। नगर के बाहर उद्यान में ठहरे । अशुभ कर्म के उदय से उनपर लगातार पांचदिन तक भूत-पिशाच भयंकर उपसर्ग करते रहे । संघ के अन्य साधु तो भयभीत होकर भाग गये । पर देह से पूर्ण निर्मोही यतिवर विद्युच्चर सुमेरू से अडिग रहे । ज्यों ज्यों उपसर्ग बढ़ता गया त्यों-त्यों वे आत्मचिंतन में डूबते गए । द्वादश अनुप्रेक्षाओं में लीन होते गये । आखिर भूत-पिशाच भी थक गये । परिषह जयी यतिवर ने समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्धि का सुख प्राप्त किया । हमारे अंतिम केवली जंबूस्वामी के प्रभाव से प्रभावित विद्युच्चर भी मुक्ति का अधिकारी बना ।
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