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परीषह-जयी
निन्यानवे के चक्कर में फँसे हैं । " दूसरेने कहा ।
पूरा वातावरण इन्हीं दीक्षार्थीओं के गुणगान कर रहा था । पूरे वातावरण में वैराग्य की लहर ही दौड़ रही थी ।
"क्यों भाइयों ? जब इनको वैरागी बनना है तो सजाया क्यों गया है ? एक व्यक्ति ने जिज्ञासा से पूछा ।
“भईया इन्हें पूरे वैभव से सजाया गया है । यह इनकी एक प्रकार से परीक्षा है कि कहीं इनका मन इस वैभव में अभी भी लगा तो नहीं है । भाई अभी कुछ समय पश्चात ये मुनिश्री के समक्ष इस वैभव को तृणवत त्याग देंगे । " दूसरे ने समझाते हुए कहा ।
शोभायात्रा पुनः उद्यान में लौट आई । महाराज श्रेणिक ने स्वयं अपने हाथों हाथी पर से जंबूकुमार को उतारा ।
गणधरस्वामी सुधर्मा ने दीक्षाविधि का प्रारम्भ किया । देखते ही देखते सभी के शरीर से वस्त्राभूषण उतरते गये । इस अपूर्व निर्माह को देखकर अनेकों. की आँखें भीग गई । राजकी वस्त्रों के स्थान पर अब जंबूकुमार एवं उनके पिताजी के पास था एक मात्र कमण्डल और पीछी । वे दिगम्बर अवस्था को प्राप्त कर सर्वस्व भौतिक उपकरण त्याग चुके थे । जंबूकुमार की माता और पत्नियों के शरीर पर थी एकमात्र सफेद साड़ी । लक्ष्मी अब सरस्वती बन गई थीं । उनके इस त्याग एवं निस्पृह्यता को देख नारी समुदाय की आँखें अश्रुका अर्घ्य चढ़ा रही थीं । कई नारियों की सिसकियाँ ही बंध गई । वातावरण जैनधर्म की जयजयकार के साथ मुनि जंबूकुमार की जय के साथ गूंज उठा । लोगों के मस्तक श्रद्धा से झुक गये । वे भावविभोर हो गये, जब इन सभी ने अपना केशलुंचन किया । इस परिषह को प्रसन्नता से सहन करते देख लोगों का मन भावुक हो गया । अनेकों के मन वैराग्य से भर गये । अनेकों श्रावकों ने व्रतधारण किए ।
अब उनके सामने थे मुनि जंबूस्वामी, मुनि अरहदास आर्यिका जिनमती एवं चार आर्यिकायें । सभी आत्मचिंतन में लीन वातावरण में भी अपूर्व शांति । लोग उनके दर्शन कर धन्य-धन्य होकर नगर में लौट आये ।
मुनि अरदास - आर्यिका जिनमती, आर्यिका पद्मश्री, आ. कनकश्री आ. विनयश्री एवं आर्यिका रूपश्री ने घोर तप द्वारा कर्मों की निर्जरा करते हुए
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