________________
*-*-*-*-*-*-* परीषह-जयी Xxxxxxxxx मंदिरों की घण्टियाँ भक्ति भाव भर रही थीं । वन की ओर जाते पशुओं के गले की घण्टियाँ संगीत का नाद गुंजित कर रही थीं । प्रातःकाल की इस मधुर बेला में मानो जंबूकुमार का ही नहीं उनकी चार पत्नियां ,मामा विद्युतच्चर सभी के कल्याण के द्वार खोल रही थी । माता-पिता भी अपने अन्तर में ज्ञान के नय आलोक का अनुभव कर रहे थे । उनके मन भी वैराग्य भाव से छलक उठे । वे भी संसार को त्यागने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे ।
उद्यान में विराजमान अवधिज्ञानी गणधर मुनि श्री सुधर्म सागरजी के दर्शनों को आज पूरी नगरी ही उमड़ पड़ी थी । लगता था सारे रास्ते ही उद्यान की ओर मुड़ गये हैं । आज स्वयं महाराज ,महारानी ,मंत्रीगण ,गण्यमान्य सामंत ,श्रेष्टिवर्ग सभी विशाल संख्या में उपस्थित थे । धर्मसभा समवशरण की भांति सुशोभित हो रही थी । महाराज की गंभीरवाणी के स्वर सभी के हृदय में शांति प्रदान कर रहे थे । पूरी सभा में पूर्ण शांति थी । लोगो के चित्त और कान प्रवचनों में ही तल्लीन थे ।।
धर्मप्रेमी बन्धुओ आत्मा का परमात्मा से मिलन ही सच्चा सुख है । भव भवान्तरों से हम भौतिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे भटक रहे हैं । अपने जीवन के अमूल्य क्षण उस सुख के पीछे नष्ट कर रहे हैं जो जीवन को स्वयं नष्ट करनेवाले हैं । शरीर के सुख को ही सुख मानकर हम चतुर्गति में भ्रमण करते रहे । हमें अब यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि आत्मा का सुख वैभव में नहीं-पर त्याग में ,तपमें है । जब तक हम बहिर्मात्मा से अन्तरात्मा में नहीं उतरेंगे । तब तक हम परमात्मा के साथ नैकट्य प्राप्त नहीं कर सकते । इस नैकट्यता के लिए हमें सर्व प्रथम मोह से मुक्ति पानी होगी । सबसे अधिक मोह हमने इस पंचभूत में विलीन होने वाले पुद्गल से निर्मित शरीर से किया है ,उससे मोह छोड़ना होगा। शरीर का मोह ही संबंधों के मोह का जनक है । यह संबंधो का मोह परिवार समाज आदि के मोह में बाँधता है । यही मोह धन,संपत्ति ऐशोआराम की ओर आकृष्ट करता है । 'मेरा-तेरा 'का भाव इसी से पनपते हैं । एक बार मोह में फँसा व्यक्ति उसमें वैसे ही लिपटता जाता है जैसे गीले गुड़ पर बैठी मक्खी अधिकाधिक उसी से लिपटती जाती है । संसार के संबंध अनित्य हैं, मोह के कारणभूत हैं । जो इस चक्रव्यूह में से निकल जाता है वही आत्मा को परख कर उसकी परिशुद्धि ,विकास एवं ऊर्ध्वागमन के लिए गृहत्यागी बनकर
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org