Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 127
________________ परीषह - जयी दिया । और पूछा - "माँ मैं तुझसे जानना चाहता हूँ कि तू इस अर्धरात्रि के समय क्यों बारंबार कभी कक्ष में, कभी आंगन में, उग्नि सी होकर दौड़ रही है, कभी तू दरवाजे के छिद्रों में आँख लगाती है और कभी आँखों को पोछती है । जिनमती ने विद्युतच्चर की सत्ययता और आत्मीयता देखकर पूरी बातें बताते हुए कहा - "कि मैं यह देख रही थी, और सुनने का प्रयत्न कर रही थी कि निश्चय के अनुसार ये वधुएँ मेरे पुत्र का मन बदल पाई है या नहीं। लेकिन मैं देख रही हूँ कि मेरा पुत्र ही विजयी रहा है । मैं रो इसलिए रही हूँ कि प्रातःकाल मेरा बेटा और चारों बहुएँ दीक्षा लेकर घर संसार का त्याग कर देंगे ।" "माँ मेरा भी यही विश्वास है । मैं भी पिछले दो घण्टों से इनका वार्तालाप सुनकर यहीं स्तम्मित हो गया हूँ। मैं तुम्हारे घर चोरी करने आया था, लेकिन इन के वार्तालाप ने मेरे पाँव ही जकड़ दिए । मेरा मन ही बदल गया । " मतलब | "जिनमती ने जिज्ञासा से पूछा । 99 " मतलब कि मेरा मन भी इस चौरकर्म और संसार की धूर्तता, वासना को त्यागकर तुम्हारे पुत्र के साथ दीक्षित होने का हो गया है । अपनी मनोभावना व्यक्त की । "" विद्युतच्चर ने "बेटा तू चाहे उतना धन ले ले 1 तू कुछ क्षण के लिए मेरा भाई बनकर मेरे बेटे को समझा कि इन कुल वधुओं को स्वीकार कर गृहस्थ जीवन का पालन करें । " "माँ यह असंभव सा लगता है । लेकिन जब तू कहती है तो मैं अवश्य प्रयत्न करूँगा । "" शयनकक्ष के दरवाजे पर टकोरों की आवाज सुनकर दरवाजा खोलते हुए द्वार पर सभी ने खड़ी हुई माँ को देखा और साथ में एक अपरिचित को भी । जंबूकुमार के चेहरे पर जिज्ञासा देखकर माँ ने कहा - "बेटा इस समय रात्रि में मुझे आया देखकर तुझे आश्चर्य हुआ होगा । लेकिन आना अनिवार्य था । ये जो मेरे पास खड़े है, तेरे छोटे मामा हैं । जब तू गर्भ में था तभी से ये व्यापार हेतु परदेश गया हुआ था । आज कुछ क्षण के लिए यहाँ तुम्हारे दर्शनों के लिए तुम्हें आशीर्वाद देने हेतु आया है । इसे प्रातः काल से पूर्व लौटना था अतः इस असमय बेला में तुमसे मिलाने ले आयी हूँ ।" कहते कहते जिनमती ने विद्युतच्चर का Jain Educationa International १२६ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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