Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 44
________________ Xxxxxxxपरीषह-जयीxvidio की चर्चा दूर-दूर के प्रदेशों तक फैलने लगी। अनेक राज्य के मंत्री और श्रेष्ठी अपनी कन्याओं के विवाह के लिए उनके यहाँ आने लगे। पुत्रों को यौवन सम्पन्न और गुण सम्पन्न जानकर मन्त्री पुरूषोत्तम और पद्मावती ने पुत्रों के विवाह करने की तैयारी शुरू कर दी। वे दोनों अपने पुत्रों के विवाह करके गुणवती बहुओं को लाने की कल्पना से आनन्दित हो उठे। पद्मावती का तो मन मयूर नृत्य करने लगा। अनेक कन्याओं को देखने परखने का कार्य आरम्भ हो चुका था। "भइया अकलंक ! सुना तुमने ? पूज्य पिताजी अपने विवाह की तैयारीयाँ कर रहे हैं । " निकलंक ने आश्चर्य से अकलंक को कहा । हाँ मैंने भी सुना है ! और मुझे भी आश्चर्य है। क्या पिताजी भूल गए कि हम लोगों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है हमारे विवाह करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता।" अकलंक ने भी अपनी बात कही। “भइया' क्यों न हम चलकर पिताजी से सब कुछ स्पष्ट रूप से कह दें। यदि वे कहीं वचन दे देगें तो हम और व सभी धर्मसंकट में पड़ जाएंगे। पिताजी को वचन तोड़ने का दु:ख होगा। और हम इसका कारण बनेंगे।" निकलंक ने अपनी राय व्यक्त की। "सच कह रहे हो, अकलंक ! चलो हम अभी पिचाजी को सब कुछ बताकर अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा से अवगत करा दें।" अकलंक और निकलंक दोनों पिताजी के कक्ष में पहुँचे। विनयपूर्वक उनके चरण स्पर्श करके खड़े रहे। मन्त्री ने पत्रों को आशीर्वाद दिया और बैठने का संकेत किया ,उसी समय पद्मावती भी वहीं आ गई। दोनों बालकों ने माँ के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया। पद्मावती ने पति और पुत्रों को बैठा देखकर यही अनुमान लगाया कि यह बैठक अकलंक और निकलंक के विवाह के सम्बन्ध में ही होगी। उसके मन में हर्ष उमड़ रहा था। "बोलो बेटे, क्या कहना चाहते हो?" पुरूषोत्तम ने दोनों पुत्रों के चहेरे के जिज्ञासा भाव को पढ़ते हुए पूछा। "पिताजी......।"कुछ अस्पष्ट शब्दों में अकलंक बुदबुदाये। "हाँ-हाँ कहो, शर्माओ मत। हम तुम्हारा विवाह तुम्हारी अनुमति से करेगें। यदि तुम्हारी विशेष इच्छा हो तो कहो।" पुरूषोत्तम ने यह समझकर कि बेटे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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