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(परीपह-जयी
" राजन् यह मेरी शक्ति नहीं है । यह तो जैनदर्म की शक्ति और प्रभाव
है ।"
" आप इस मंदिर में शिवभक्त बनकर महन्तका रूप धारण कर क्यों रहे? यह रहस्य समझ में नहीं आया ।" राजा ने जिज्ञासा से पूछा ।
महाराज के पूछने पर समन्तभद्राचार्य ने अपने जीवन की वह पूरी कहानी सुना दी । कैसे वे रोग से पीड़ित थे और कैसे उसे दूर करने के लिए उन्हें यह सब करना पड़ा । अथ से इति तक की घटनाएँ सुनाते हुए कहा
“राजन् मैंने इस शरीर के रोग से मुक्त होने के लिए सभी उपाय किए । पर आत्मा से परम पुनीत जैनधर्म का कभी भी त्याग नहीं किया। भय या ऐषणा से कभी कुदेव या सरागी देव की वंदना या निंदा नहीं की । मेरा कार्यपूर्ण हुआ । मैं पुनः अपने मूलवेष साधू वेष को धारण करता हूँ । कहते-कहते महन्त समन्तभद्र ने उसी समय वस्त्रों का त्याग करके पुनः दिगम्बर रूप धारण कर लिया । "
इस वेष को देखकर राजा सहित सभी ने दिगम्बराचार्य समन्तभद्र जी को नमस्कार किया । महाराज ने जनसमूह को संबोधन करते हुए कहा
राजन्! सभी उपस्थित धर्मप्रेमी भाईयों ! संसार क्षणिक है । हम निजी स्वार्थ, लोभ, भय के वशीभूत होकर सच्चे देव की पहिचान ही भूल जाते हैं । हम कुदेव या सुदेव, रागी और वीतरागी देव का भेद ही नहीं कर पाते । हमारी दृष्टि इतनी संकुचित हो जाती है कि हम लोभ के कारण भिखारी बनकर उस भगवान से कुछ न कुछ माँगते रहते हैं । भाई इतना समझ लो कि देह-धन आदि का सुख हमारे शुभ-अशुभ कर्मों का ही परिणाम है । सच्चा भगवान वीतरागी होता है । वह तो स्वयं संसार के वैभव को छोड़कर तप की अग्नि में तप कर जन्म-मरण से मुक्त होकर मोक्षगामी हो गया है । उसे न राग है न द्वेष । फिर वह देगा क्या और कैसे ? हमारी उपलब्धि और नुकशान ये सब हमारे ही कर्मों का फल होता है । जो हमें भोगना ही पड़ता है । जैसा मुझे भी भोगना पड़ा है । तीर्थंकरों को
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