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X xxrdxपरीषह-जयीxxxxxxxx निष्कंटक बनायें । मैं धर्म की शरण में हूँ । जो होना हो होगा ।'' सोचकर वे पुनः ध्यान में लीन हो गये । उत्तम भावों से प्रभु की आराधना में खो गये । ___“हे आचार्य आँखें खोलो । आपकी जिनभक्ति इतनी पवित्र सच्ची है कि आपको भयभीत होने की शंकित होने की कोई आवश्यकता नहीं । आप विश्वास रखें कि विजय आपकी ही होगी । जिनेन्द्र भगवान का भक्त कभी परास्त नहीं हो सकता । विजय सच्चे धर्म की ही होती है । आप निश्चित होकर चतुर्विंशति तीर्थकरों का “स्वयंभुवाभूत हितेन भूतले " स्तवन रचकर उनकी स्तुति और स्मरण करें । इससे आपका कथन शत प्रतिशत सत्य होगा । शिवलिंग आपके नमस्कार करते ही फट जायेगा और उसमें से भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा प्रगट होगी ।" इतना कहकर मार्ग प्रशस्त करके देवी अंबिका अदृश्य हो गई ।
समन्तभद्राचार्य के ध्यानस्थ होनेपर उनके धर्म की हँसी न उड़े इससे अंबिका देवी का आसन कांप उठा था । इसीलिए वे स्वर्ग से चलकर समन्तभद्राचार्य को मार्ग प्रशस्त करने आई थी।
"माँ आपने बड़ी कृपा की । अपने भक्त की लाज बचा ली । जिनधर्म की महिमा का गौरव बढ़ाने का मार्ग बताया । " भावविभोर होकरं समन्तभद्राचार्य प्रसन्नता से देवी अंबिका के चरणों में नमस्कार करने लगे । उनकी चिन्ता मिट गई । सरस्वती उनकी जीभ पर अवतरित हुई । वे अंबिका देवी के कथनानुसार स्तोत्र की रचना में लीन हो गये । भक्ति की तरंगे उठने लगीं । हृदय सागर डोलायमान हो गया । स्वर स्वयभू अंतर से प्रस्फूटित होने लगे । चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति में डूबे समन्तभद्र महाराज ने 'स्वयंभूस्तोत्र ' की रचना की । रचना की पूर्णता उनके तन-मन को आह्लादित करने लगी । वे सुख और निश्चिंतता की नींद में सोये ।।
परीक्षण का सूर्योदय हुआ । शिवमंदिर में महाराज शिवकोटी सहित विशाल जनसमूह ,विद्वान पंडित आदि एकत्र हो गये । राजा की आज्ञा से नजरकैद महन्त समन्तभद्र को गर्भ गृह से बाहर लाया गया । राजा आश्चर्य चकित रहे गये । समन्तभद्र के चेहरे की प्रसन्नता एवं आँखों की दृढ़तापूर्ण चमक देखकर । ___ “कैसा विचित्र आदमी है ? मरण के मुखपर खड़ा है फिर भी चेहरे पर कोई भय या शंका नहीं । रोज से अधिक प्रफुल्लित लग रहा है । "
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