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* परीपह-जयीrrrrrrr “महाराज एक बात और यह कभी शिवजी को नमस्कार भी नहीं करता लगता है यह कोई विधर्मी है । किसी छलछद्म के कारण ही यह यहाँ यह पापकर्म कर रहा है । " एक ब्राह्मण ने महाराज से कहा
“हाँ-हाँ यह शैव नहीं है | महाराज इसे आज्ञा दें कि यह भगवान शिवलिंग को वंदन करे । तभी सत्यका पता चलेगा ।" दूसरे ने महाराज को उकसाया ।
“ महन्त तुम महन्त के वेष में धूर्त हो । इससे पहले कि हम तुम्हें दंड दे तुम सत्य बताओ कि ऐसा तुमने क्यों किया ? तुम्हारा उद्देश्य क्या था ? तुम क्या सचमुच शैव हो ? तुम्हारा धर्म क्या है ?" महाराज शिवकोटी ने क्रोध पर काबू प्राप्त करते हुए पूछा ।
__ महन्त समन्तभद्र ने महाराज के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया । वे मौन रहकर अन्तर में पंचपरमेष्टी प्रभु एवं शासन देवी का ध्यान कर इस संकट से मुक्त होने का मार्ग ढूढ़ने में लग गये ।
महन्त समन्तभद्र का मौन महाराज शिवकोटी की क्रोधाग्नि को भड़काने में घी का काम करने लगा ।
“धूर्त सच-सच बता कि तू किस धर्म का अवलंबी है ? तू शिवलिंग को नमन कर अन्यथा तुझे कड़ी से कड़ी धर्मद्रोह की सजा दी जायेगी ।" महाराज ने गरजते हुए आदेश दिया ।
“महाराज मैं शैव नहीं हूँ, यह सत्य है । पर ,आपके महादेव मेरा नमस्कार झेल नहीं पायेगे । मैं निग्रन्थ वीतरागी अर्हत तीर्थंकरों का अनुयायी हूँ। राग-द्वेष संसार से पूर्ण विरक्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र के धारी अष्टादश दोष से रहित ,केवल ज्ञान सूर्य से आलोकित हैं मेरे तीर्थंकर प्रभू । उनके अलावा मैं किसी के समक्ष मस्तक नहीं झुकाता । फिर मेरा नमस्कार सहने की शक्ति अन्य किसी रागी देव में है भी नहीं । "समन्तभद्र ने निडरता से उत्तर दिया ।
“तुम्हें यदि जान प्यारी है तो शिवलिंग को नमस्कार करो अन्यथा तुम्हारा वध किया जायेगा ।" महाराज ने पुनः मृत्यु का भय दिखाया । ___“महाराज मृत्यु से मैं डरता नहीं । मृत्यु तो इस शरीर की होती है - आत्मा को अजर-अमर है । रही बात मृत्यु के भय की तो सनिये महाराज - "भय-आशा-स्नेह एवं लोभ " के वशीभूत होकर मैं कभी भगवान जिनेन्द्र के
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