Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

View full book text
Previous | Next

Page 123
________________ rrrrrrrrrr परीपह-जयी rrrrrrrr- का कष्ट क्यों किया ? मुझे बुला लेते । " "बेटा हम तुमसे कुछ याचना करने आये हैं ।” पिताने भर्राये गले से कहा । और माँ के तो आंसू ही बहने लगे । “पिताजी ऐसा न कहें । मैं आपका पुत्र हूँ । मुझे आदेश दें ।" "बेटा मेरी इज्जत का प्रश्न है । तुम्ही मेरी इजत बचा सकते हो । " “आखिर क्या बात है । पिताजी । आप आदेश दें । मैं अवश्य पालन करूँगा ।" "बेटा मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूँ । पुनः कहरहा हूँ कि मैंने बचपन में अपने मित्रों को वचन दिया था कि उनकी चारों पुत्रियों के साथ तुम्हारा विवाह रचाऊँगा । तुमने विवाहका इन्कार कर मुझे बड़े धर्म संकट में डाल दिया है । मेरी जवान कट रही है । मैं मुँह दिखाने लायक नहीं रहूँगा । "सेठ और सेठानी ने अति दयनीय स्वर में अपना हृदय खोल दिया । __ “पिताजी आपको ज्ञात है कि मैं संसार के बंधन में बँधना नहीं चाहता । सांसारिक भोगों से मैं विरक्त हो गया हूँ | मैं तो आपकी आज्ञा चाहकर दीक्षाग्रहण करना चाहता हूँ । आपही बतायें यदि मैं आपकी बात रखने के लए विवाह कर भी लूँ तो भी मैं गृहत्याग करूँगा । उस समय उन चार कन्याओं के जीवन का क्या होगा ? अभी वे क्वांरी हैं । उनके विवाह कहीं भी हो सकते हैं । बाद में उन्हें जीवन भर वियोग का दुख सहन करना पड़ेगा । 'जंबूकुमार ने परिस्थिति का पृथक्करण करते हुए कहा । “बेटा यह सब तुम्हारे युवा मन की भावुकता है | जब तुम विवाह करके भोगोपभोग के सुख भोगोगे तो यह सब भावुकता स्वयं बदल जायेगी । " “पिताजी यह असंभव है । मैंने यह निश्चय भावुकता में नहीं अपितु दृढ़ चिन्तन के बाद लिया है । “बेटा उन चारों पुत्रियों ने संदेश भेजा हैं ।" "क्या पिताजी ?" " बेटा उन कन्याओं ने मन से तुम्हें अपना पति मान लिया है । तुम्हारे अलावा संसार का हर पुरूष उनके लिए पिता और भाई है । उनका यह संदेश है कि तुम विवाह करके मात्र एक दिन ही उनके साथ रहो । उनका यह ,विश्वास है कि तुम उनके रूप-गुण की पूजा करने लगोगे ।" सेठजीने दूतद्वारा लाये गये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162