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परीषह - जयी
निराश होकर दुःखी मन से उन्होंने अपने चारों मित्रों के पास यह संदेश भिजवा दिया और क्षमा याचना भी की ।
सेठ अरदास के इस संदेश को सुनकर चारों श्रेष्टियों को बड़ा आघात लगा | उनके उत्साह रूपी चन्द्र पर यह समाचार ग्रहण सा बन गया । चारों कन्याओं ने जब यह समाचार सुना तो वे स्तब्ध रह गई । उन्होंने अपने मन में विचार किया - "हमने बचपन से जिन्हें अपना पति स्वीकार किया है, उन जंबूकुमार के अलावा अन्य कोई हमारा पति नहीं हो सकता । भारतीय नारी एक बार मन से जिसे अपना पति स्वीकार कर लेती है, फिर अन्य किसी को पति के रूप में स्वीकार करने की कल्पना भी नहीं कर सकती । '
वे चारों सोच रही थीं कि - " ये सब जंबूकुमार की भावुकता है, अभी उन्होंने रूप औप यौवन का आस्वाद ही कहाँ लिया है ? रूप की मदिरा का पान कर नशा ही कब किया है ? उन्हें विश्वास था कि उन्हें अपने हाव-भाव रूपयौवन कला एवं. स्त्रीयोचित भावों द्वारा जंबूकुमार को रिझाने में सफलता मिलेगी । उन्हें विश्वास था कि वे अपने सौन्दर्य के प्रति जंबूकुमार को अकर्षित ही नहीं बाँध भी लेगीं ।
अपने पिता और माता को चिन्ता युक्त देखकर कन्याओं ने कहा
पिताजी आप चिन्ता न करें । हम लोग जंबूकुमार के अलावा अन्य किसी पुरुष से विवाह नहीं करेगें । हमें विश्वास है कि हम विवाह के पश्चात अपने पति को वैरागी होने से बचा लेंगे ।"
"यह कैसे सम्भव होगा ?
जिज्ञासा से पुत्री के पिता और माता ने
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पूछा ।
"यह आप हम पर छोड़ दें । आप सेठ अरहदास के यहाँ यह संदेश पहुँचा दें कि उनके पुत्र मात्र एक दिन के लिए पाणिग्रहण करें । फिर चाहे तो दीक्षित हो जाएँ। " पुत्रियों ने आग्रह किया ।
"बेटी यह विचित्र लगता है कि तुम जो करने जा रही हो वह एक साहस ही है । यदि विवाहोपरान्त जंबूकुमार दीक्षित हो गए तो तुम चारों का जीवन बरबाद हो जाएगा । बेटी यौवन का सौन्दर्य विरह का नाग बनकर तुम्हें हँसेगा । तुम तन और मन दोनों से बिखर जाओगी । अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम अपने विचार को त्यागो | हम भारत वर्ष के उत्तम कुलजन्मा श्रेष्ठ निपुण
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