Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 120
________________ Xxxxxxxx परीषह-जयी-- - ___“जंबूकुमार हम चाहते है कि अब तुम्हारा विवाह हो जाना चाहिए । हम लोग तुम्हें नगर सेठ के पद पर विभूषित कर आत्मकल्याण के पथ पर जाना चाहते हैं । " अरहदास सेठ ने जंबूकुमार से अपने हृदय की भावना व्यक्त की। “हाँ बेटा मैं चाहती हूँ कि तुम्हार विवाह हो ,और मैं भी बहू के हाथ में घर सौंप कर जिनेन्द्र भक्ति में अपने समय को बिताऊँ ।' जिनमती ने भी पुत्र से आग्रह किया । जंबूकुमार को मौन देखकर अरहदास ने पुनः स्मरण करते हुए कहा - "बेटा जंबूकुमार तुम्हारे जन्म के पश्चात मेरे चार मित्रों ने जिनके घर कन्याओं ने जन्म लिया था । उन्होंने उन चारों का विवाह यौवन सम्पन्न होने पर तुम्हारे साथ करने का प्रस्ताव किया था । जिसका मैंने स्वीकार भी किया था । मेरे मित्र समुद्रदत्त की कन्या पद्श्री,दूसरे कुबेरदत्त की कन्या कनकधी ,तीसरे वैश्रवण की कन्या विनयश्री और चौथे धनदत्त की पुत्री रूपश्री है । ये कन्याएँ सुन्दर हैं। रूप में वे इन्द्राणी को भी लज्जित करनेवाली हैं । चन्द्रमुखी,मृगनयनी ये कन्याएँ विद्या और बुद्धि में वृहस्पति के समान हैं । चित्र नृत्य,कला में निपुण हैं । इन चारों कन्याओं के साथ हम अपने वचनों के अनुसार तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं।" ____ “पिताजी मैं इस विवाह के बन्धनों में नही बँध सकता । "नम्रता से जंबूकुमार ने अपने हृदय की बात व्यक्त की । “क्यों ? "अरहदास और जिनमती के मुंह से एकाएक ये उदगार फूट पड़े । उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । पुत्र विवाह की सुखद कल्पनाओं का महल उन्हें ढहता हुआ नजर आया ।। ___ “पिताजी मैं भगवान महावीर स्वामी के पंचम गणधर मुनि सुधर्म सागर से अपने पूर्व जीवन के बारे में सबकुछ जान चुका हूँ । और अब मैं संसार में रह कर जीवन को बरबाद नहीं करना चाहता । मैं जिनदीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना चाहता हूँ । " जंबूकुमार ने अपने निश्चय को व्यक्त किया । “जंबूकुमार के इस निश्चय को सुनकर सेठ अरहदास को दुःख हुआ । वे और सेठानी जिनमती दिग्मूढ़ रह गए । उन्हें लगा कि वे अपने उन चार मित्रों से यह वृत्तान्त कैसे कहेंगे ?' सेठ अरहदास ने देखा कि जंबूकुमार अपने दृढ़ निर्धार से नहीं हटेंगे तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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