Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

View full book text
Previous | Next

Page 118
________________ परीषह - जयी मुंड रूधिर के प्रवाह में तैर रहे थे । पूरी भूमि लाशों से पट गई थी । इस युद्ध में गगनपति घायल हो गया और राजा मृगांग युद्ध में परास्त हुए । रत्नशेखर ने उन्हें बन्दी बना लिया । इस समाचार से केरल के राजघराने और राज्य में शोक की लहर दौड़ गई । जंबूकुमार ने जब इस पराजय का समाचार सुना तो वे पुनः सेना सहित केरल की ओर रवाना हुए । | "रत्नशेखर मैं चाहता हूँ कि हम लोग द्वन्द्व युद्ध करके हार-जीत का निर्णय कर लें । नाहक में नरसंहार क्यों हो ? "जंबूकुमार ने रक्तपात बचाने हेतु रत्नशेखर को ललकारते हुए द्वन्द्व युद्ध के लिए आह्वान किया । रत्नशेखर ने जंबूकुमार के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । दोनों के बीच भयंकर मलयुद्ध हुआ । इस मलयुद्ध में जंबूकुमार ने रत्नशेखर को परास्त कर बन्दी बनाया । महाराज मृगांग को बन्धन से मुक्त कराया । महाराज मृगांक की आँखों में आँसू छलक उठे । उन्होंने जंबूकुमार के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की । उन्हें अपने साथ केरल के राजभवन में पधारने की विनती की । महाराज ने विनय को आज्ञा मानकर जंबूकुमार के साथ राजभवन की ओर प्रयाण किया | साथ में बन्दी रत्नशेखर को भी ले गए । राजभवन पहुँच कर जंबूकुमार के कहने पर रत्न शेखर को स्वतन्त्र कर दिया गया । जंबूकुमार ने उसे पुनः समझाया कि वह कुशील हेतु इस प्रकार के संहारक युद्ध न करें । जंबूकुमार ने मृगांग और रत्नशेखर के बीच मैत्री भी करा दी | रत्नशेखर जंबूकुमार की इस भावना, प्रेम और वीरता को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ । उसे अपने कृत्य पर ग्लानि भी हुई और उसने महाराज मृगांग और जंबूकुमार से क्षमा याचना भी की । सब लोग परस्पर गले मिले । उपस्थित समाजनों एवं नगरजनों ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जयघोष किया । सबलोग जंबूकुमार की बहादुरी और उनकी सहृदया की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । कुछ दिनों केरल रहने के पश्चात महाराज मृगांग ने अपनी पुत्री का पाणिगृहण राजगृही के महाराज से धूमधाम से किया । कुछ समय पश्चात महाराज मृगांग अपने परिवार, विद्याधर गगनपति, रत्नशेखर एवं जंबूकुमार सहित विमान में बैठकर मगध की ओर रवाना हुए । मार्ग में उनकी भेंट महाराज श्रेणिक से हुई । महाराज श्रेणिक से सबका परिचय कराया गया । ११७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162