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परीपह-जयी
अभी प्रसाद चढ़ाने में बहुत समय शेष था । तभी चालाकी से एक लड़के को उस नाली में छिपा दिया जिससे लिंग पर किये गये अभिषेक का जल निकलता था । नाली को इस तरह पत्तों से आच्छादित कर दिया कि किसी को कोई शंका न हो ।
यथा समय पूजन के साथ पकवान के भरे हुए थाल लाये गये । उन्हें गर्भगृह में रख दिए गये । प्रतिदिन की भाँति महन्तजी ने गर्भगृह के पट बंद कर दिये । अंदर अपने नित्यकर्म की तरह पकवान स्वयं खाने लगे । उनकी यह लीला नाली में छिपा लड़का देख ही रहा था । थोड़े समय पश्चात अधिकांश बचा हुआ मिष्ठान पकवान के थाल लेकर वे प्रसाद के रूप में बाँटने के लिए दरवाजा खोलकर बाहर आये तो देखा आज स्वयं महाराज शिवकोटी एवं अनेक अधिकारीगण व लोग उपस्थित हैं । इन सबको देखकर महन्तजी एक क्षण को तो संकपका ही गये । पर तुरन्त स्वस्थ हो कर प्रसाद बाँटने लगे । उनका मन आशंका से भर गया । सोचने लगे - “कहीं मेरा राज तो नहीं खुल गया ? कहीं राजाको सच का पता तो नहीं चल गया ? अनेक शंकाएँ उनके मन में उठने लगी ।
लीजिए महाराज प्रसाद ग्रहण कीजिए । महाराज शिवकोटी को प्रसाद देने को महन्त समन्तभद्र ने थाल आगे किया ।
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"क्यों महन्तजी क्या हमारे शिवजी अब कुछ नहीं खाते । अरे देखो ये थाल की सामग्री तो ज्यों की त्यों लगती है । क्या शिवजी पूर्ण रूप से तृप्त हो गये । महाराज ने जिज्ञासा से पूछा ।
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"महाराज ये क्या कहेंगे ये तो महाधूर्त व झूठ हैं । सच यह है कि ये स्वयं भोजन खा लेते हैं और शिवजी का नाम बदनाम करते हैं। I नाली से छिपा हुआ लड़का बाहर आकर जो देखा था उसका बयान करने लगा ।
महन्त समन्तभद्र का मुहँ खुला ही रह गया । महाराज इस धूर्तता से क्रोधाग्नि में तमतमाने लगे ।
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"महाराज मुझे तो पहले से ही यह धूर्तता लगती थी । पर इसने अपने वाक् जाल में फाँस कर राज्यका अनिष्ट हो जायेगा - ऐसा भय बता कर हमें मौन कर दिया था । इसने शिवजी का अपमान किया है । प्रसाद को किया है । " पुजारी ने अपने मन की भड़ास निकालते हुए कहा ।
जूठा
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