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xxxxxx परीपह-जयी rrrrrrrrrrrr
मलमूत्र से गंदा है | यह सम्पत्तिजो चंचल है । सोच लो तुम्हें क्या करना है । एक ओर मुक्ति है । एक ओर आसक्ति । एक ओर धन है दूसरी ओर धर्म । एक ओर त्याग है दूसरी ओर भोग । एक ओर भव भ्रमण है दूसरी ओर मुक्ति ।"
पुष्पडाल मुनि ने वारिषेण की संपदा देखी,इन्द्राणी को भी लजानेवाली सौन्दर्यवती पलियों को देखा । वारिषेण के शब्द उसके कानों के पथ से हृदय तक उतर गये । जो सत्य बारह वर्षों से मोह के कारण नहीं समझ पाये थे वे एक क्षण में समझ गये । मोह नष्ट हो गया । सच्चे वैराग्य का सूर्य उदित हो चुका था। उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था । वे पश्चात के ताप में सिकने लगे। पश्चाताप की अग्नि में पिघला हुआ पाप नयनों के नीर से धुलने लगा । वे . वारिषेण के चरणों में गिरकर कहने लगे - " महाराज क्षमा करें । आज मेरा मोह व तत्जन्य अन्धकार नष्ट हो गया है । हे मुनि! मैं जन्मांध था सत्य को जान ही नहीं पाया । एक पत्नी का मोह मेरे तप को आबद्ध किए रहा । मैं सत्य को देख ही नहीं पाया । मेरे बारह वर्ष पानी में चले गये । प्रभु मुझे प्रायश्चित का आदेश दे ।"
"मुनि पुष्पडाल पश्चाताप मनुष्य को पवित्र बना देता है । तुममें सत्यकी दृष्टि उत्पन्न हो गई है ।जागे तभी से सबंरा समझो यह तुम्हारा दोष नहीं । तुम्हारे पूर्व कर्मों का ही उदय था । जिसने तुम्हारी दृष्टि को जागृत नहीं होने दिया । पर अब तुम्हारा शुभोदय आया है । तुम पुनः आत्मचिंतन में लीन होकर आत्मकल्याण की ओर मुड़ जाओ । यही प्रायश्चित है ।" मुनि वारिषेणजी ने धैर्य बँधाते हुए उन्हें तपकी ओर उन्मुख किया । ___ “माँ मैं समझता हूँ कि आप मेरा उद्देश्य समझ गई होंगी।" ।
अब समझने को रहा ही क्या था रानी चेलना के चेहरे की प्रसन्नता ही व्यक्त कर रही थी । कि उनका मन पूर्ण रूप से पुत्र के प्रति श्रद्धावान हो चुका था ।
मुनिवारिषेण एवं मुनि पुष्पडाल राजभवन के समस्त वैभव के प्रति उदास भाव से राजमार्ग से होकर वन की ओर गमन कर रहे थे । अनेक अश्रुपूर्णनयन उनके गमन को देखकर बरस रहे थे।
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