Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 114
________________ XXXXXXXपरीषह-जयीXXXXXXX लगे । उनके रूप का निखार कामदेव से भी अधिक निखरने लगा । एक बार जो भी उन्हें देख लेता, वह उन्हें अपनी आँखों में बसा लेता । एकबार नगर में अवधिज्ञानी मुनि महाराज का आगमन हुआ उनके दर्शन को लोग उमड़ पड़े और प्रवचन से आत्मोद्धार भावना से भर उठे । शिशु जंबू कुमार को लेकर सेठ अरहदास और सेठानी जिनमती उनके दर्शनार्थ गए। महाराज को वन्दन करके उन्होंने विनम्रता से पूछा-“महाराज मेरे इस पुत्र जंबू स्वामी के जीवनवृत को ,इसके अतीत और भविष्य के बारे में बताने का कष्ट करें ।" "श्रेष्टि अरहदास तुम्हारा यह पुत्र महान तपस्वी और इस युग का अन्तिम केवली होगा । यह प्रश्न कि “अन्तिम केवली कौन होगा ? श्रेणिक द्वारा भगवान महावीर के समवशरण में पूछने पर भगवान ने कहा था - “यह विद्युन्माली नाम का देव जो यहाँ देवताओं के कोठे में बैठा है वह सातवें दिन स्वर्ग से चलकर इसी राजगृही में सेठ अरहदास की पत्नी के गर्भ से जन्म लेगा और इस भव से मोक्षगामी होगा । " ___ भगवान की इस भविष्यवाणी को सुनकर श्रेणिक अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने इस महापुरूष जो तद्भव मोक्षगामी होने वाला है, उसके जीवन को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की । भगवान ने इस जंबू कुमार के पूर्वभवों का परिचय श्रेणिक महाराज को दिया था ,उसे ही मुनि महाराज ने सेठ अरहदास को अपने ज्ञान से जानकर संक्षेप में बताया । ___ “यह जंबू कुमार का जीव स्वर्ग में विद्युन्माली नामक देव था । इससे पूर्व इसके तीन भव ,उत्तरोत्तर प्रगति के भव रहे हैं । तीन भव पहले यह सोमशर्मा ब्राह्मण का पुत्र ‘भवदेव ' था | इसने अपने भाई ‘भवदत्त' के साथ मुनिधर्म को अंगीकार कर कठोर तप द्वारा स्वर्ग में देवत्व प्राप्त किया । पुनःश्च इस भवदेव का जीव वीताशोक नगरी में राजा महापद्म की पटरानी वनमाला के गर्भ से शिवकुमार के नाम से पुत्र के रूप में जन्मा ,और बड़े भाई भवदत्त ने भी पुण्य के उदय से राजा वज्रदन्त की पत्नी रानी यशोधना के गर्भ से सागरचन्द्र नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया । दोनों युवान हुए ,दोनों के विवाह हुए । एकबार सुवन्धुतिलक नामक मुनि महाराज के दर्शन करते समय सागरचन्द्र को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । उसे भाई के प्रति अति स्नेह उमड़ आया । लेकिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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