Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 106
________________ परीपह-जयी बेटा तेरा ही बेटा होगा जो धर्मपथ पर आरूढ़ होगा । संसार में सुख है ही कहाँ ? यह तो सब सुखाभास है । संसार का सुख तो चतुर्गति में भ्रमण कराने वाला है। मैंने छोटे से जीवन में इस प्रकार के दुखों को जान लिया है । अब तो जिनेन्द्र भगवान के चरण ही मेरी मंजिल हैं । पिताजी त्याग के पथ पर उम्र की कोई महत्ता नहीं होती । राज्यसुख मैं नहीं चाहता । उसके लिए मेरे अन्य भाई हैं । मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप दोनों प्रेमपूर्वक मुझे आत्मकल्याण के पथ पर जाने की आज्ञा दें । वारिषेण ने विनय पूर्वक माता-पिता की आज्ञा चाही । " महाराज श्रेणिक रानी चेलनी अवाक् ही थे । सारे नगरजन भी मौन स्तब्ध थे । यह क्या हो रहा है - उन्हें सब कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था । सभीने देखा राजकुमार वारिषेण अपने शरीर के बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण त्याग कर वन की ओर गमन कर रहे है । बस अब आकाश में गूंज रही थी जैनधर्मकी जय, त्याग की जय, वारिषेण की जय ध्वनि । * * * तपस्वी वारिषेण मुनि की तप-कीर्ति चारों दिशाओं में फैल रही थी । उनके धर्मोपदेशों को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे । धर्मामृत का पान कर लोग भावविभोर हो उठते थे । अनेक लोग संयम धारण कर रहे थे । नंगेपाव, कठोर धरती की चुभन तो जैसे उनका जीवन क्रम बन गई थीं रूखा सूखा एक बार भोजन ही उनका उद्देश्य रह गया था । महाराज वारिषेण विहार करते हुए पलाशकूट नगर में पधारे । लोग उनके प्रवचनों को सुनने उमड़ पड़े । आज महाराज श्रेणिक के मंत्री अग्निभूत के साथ उनका युवा पुत्र पुष्पडालभी आया । उसने मुनि श्री के प्रवचन सुने । उसका भक्ति भाव उमड़ आया । वह धर्मनिष्ठ तो था ही । वह वारिषेण कुमार का बालमित्र भी था । उसे अपने मित्र का यह मुनिवेश उसकी क्रिया, साधना सभी प्रत्साहित करने लगी । उसने मुनि वारिषेण को नवधाभक्ति पूर्वक आहार कराया और उनके गमन करने के समय भक्ति और पूर्व मैत्री से प्रभावित १०५ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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