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परीपह-जयी
बेटा तेरा ही बेटा होगा जो धर्मपथ पर आरूढ़ होगा । संसार में सुख है ही कहाँ ? यह तो सब सुखाभास है । संसार का सुख तो चतुर्गति में भ्रमण कराने वाला है। मैंने छोटे से जीवन में इस प्रकार के दुखों को जान लिया है । अब तो जिनेन्द्र भगवान के चरण ही मेरी मंजिल हैं । पिताजी त्याग के पथ पर उम्र की कोई महत्ता नहीं होती । राज्यसुख मैं नहीं चाहता । उसके लिए मेरे अन्य भाई हैं । मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप दोनों प्रेमपूर्वक मुझे आत्मकल्याण के पथ पर जाने की आज्ञा दें । वारिषेण ने विनय पूर्वक माता-पिता की आज्ञा
चाही ।
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महाराज श्रेणिक रानी चेलनी अवाक् ही थे । सारे नगरजन भी मौन स्तब्ध थे । यह क्या हो रहा है - उन्हें सब कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था । सभीने देखा राजकुमार वारिषेण अपने शरीर के बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण त्याग कर वन की ओर गमन कर रहे है । बस अब आकाश में गूंज रही थी जैनधर्मकी जय, त्याग की जय, वारिषेण की जय ध्वनि ।
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तपस्वी वारिषेण मुनि की तप-कीर्ति चारों दिशाओं में फैल रही थी । उनके धर्मोपदेशों को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे । धर्मामृत का पान कर लोग भावविभोर हो उठते थे । अनेक लोग संयम धारण कर रहे थे । नंगेपाव, कठोर धरती की चुभन तो जैसे उनका जीवन क्रम बन गई थीं रूखा सूखा एक बार भोजन ही उनका उद्देश्य रह गया था ।
महाराज वारिषेण विहार करते हुए पलाशकूट नगर में पधारे । लोग उनके प्रवचनों को सुनने उमड़ पड़े । आज महाराज श्रेणिक के मंत्री अग्निभूत के साथ उनका युवा पुत्र पुष्पडालभी आया । उसने मुनि श्री के प्रवचन सुने । उसका भक्ति भाव उमड़ आया । वह धर्मनिष्ठ तो था ही । वह वारिषेण कुमार का बालमित्र भी था । उसे अपने मित्र का यह मुनिवेश उसकी क्रिया, साधना सभी प्रत्साहित करने लगी । उसने मुनि वारिषेण को नवधाभक्ति पूर्वक आहार कराया और उनके गमन करने के समय भक्ति और पूर्व मैत्री से प्रभावित
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