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________________ xxxrxxxx परीषह-जयीXXXXXXXX संत्रिओं ने मेरा पीछा किया । मैं आगे और वे पीछे । वे मेरे निकट पहुँच रहे थे। मैं आसन्न भय से भयभीत था । आज तक कभी भी कोई मुझे पकड़ नहीं सका था । पर ,इस बार मेरी जान संकट में फंसी थी । मैं दोड़ते-दौड़ते श्मशान के पास से गुजर रहा था । अपनी जान बचाने के लिए मैंने देखा श्मशान में ये राजकुमार कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न थे । मैंने हार इन्हीं के पास फेंक कर अपनी जान बचाई । मैं छिपकर देख रहा था कि इन्होंने इस हार की ओर देखा तक नहीं । संत्रीगण अवश्य इनके पास पहुंचे थे । इन्हें घेर लिया था । महाराज वही है सच्ची कहानी । अब आप जो सजा द, मुझे दें । " कहते हुए विद्युतचोर महाराज के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगा। विद्युतचोर की सत्यबात सुनकर ,उसके चेहरे पर पश्चाताप के भाव एवं आँखों में अश्रु देखकर महाराज ने उसे क्षमा कर दिया । पुनः पुत्र की ओर मुड़कर बोले-“बेटे घर चलो । राज्य का कारभार सम्हालो । ” "हाँ , बेटे चलो । '' माताने भी लाड़ से कहा । ___ “पिताजी अब मुझे क्षमा करें । जब सैनिकों ने मुझे बन्दी बनाया था । जब मुझे वधस्तम्भ पर वध करने ले जा रहे थे, तभी मैंने भगवान जिनेन्द्र को साक्षी बनाकर यह नियम धारण कर लिया था कि यदि इस उपसर्ग से मुक्त हो गया तो संसार का त्याग कर जिनत्व के पथ पर चलूँगा । अतः अब मैं जिनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगा।" “बेटा यह क्या कह रहे हो ? तुम बड़े भोले हो, कोमल हो, अभी तुमने संसार में देखा ही क्या है ? मैं तुम्हारा ब्याह रचाऊँगा । बहू लाऊँगा । पौत्र खिलाऊँगा । बेटे घर चलो संसार के सुख भोगो ।" चेलनी ने वारिषेण के गले से लगते हुए कहा । “हाँ बेटा राज्यका भार वहन करो | त्याग की उम्र तो मेरी है ।''महाराज ने भी आग्रह किया । __ “पिताजी माताजी अब यह संभव नहीं है । मैं अब देह के विवाह के स्थान पर आत्मा से विवाह करूँगा । मोक्ष लक्ष्मी का वरण करूँगा । माँ ! हर वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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