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rt परीषह-जयीXXXXXXXX कुमार वारिषेण के इस प्रकार के प्रभाव व धर्म के चमत्कार को देखकर चोर जिसके कारण वारिषेण पर यह संकट आया था । वह भयभीत हो गया ।
“महाराज मुझे क्षमा करें । मैं ही वह चोर हूँ । जिसके कारण कुमार को झूठे आरोप की सजा भुगतनी पड़ी । मेरा नाम विद्युत्चोर है । '' कहते-कहते विद्युत्चोर राजा श्रेणिक के चरणों में गिर कर क्षमायाचना करने लगा ।
“अच्छा तुम्ही हो प्रसिद्ध विद्युत्चोर । यह घृष्टता तुमने क्यों की ? सचसच बताओं तुम्हें अपने किए का दंड अवश्य दिया जाएगा ।''महाराज श्रेणिक ने क्रोध से पूछा । __“महाराज मैं आपको सबकुछ बताता हूँ । आप जो भी सजा देगें वह मुझे मंजूर होगी । श्रीमान ! मगधसुन्दरी वेश्या पर मुझे प्रीति थी । एक दिन वह उपवन में क्रीड़ा कर रही थी कि उसी समय उपवन में श्रीकीर्ति श्रेष्टीवर भी अपनी भार्यासह पधारे थे । उनके गले में यह सुन्दर कीमती हार था । वेश्या का मन इस हार पर ललच उठा था । उसी शाम को उसने मुझसे कहा था - " हे प्रिय तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो ?" .
“क्या इसमें तुम्हें शक है मेरी प्राणप्रिये ?" “क्या मेरे लिए कुछ भी कर सकते हो ? " “मैं स्वर्ग के तारे भी तोड़कर ला सकता हूँ। "
“स्वर्ग के तारे रहने दो । पहले मुझे वह हार ला दो जो सेठ श्रीकीर्ति ने पहना था । यदि तुम वह हार ला दोगे तो मैं समझूगी कि तुम मुझे सचमुच प्यार करते हो । " कहते हुए मगधसुन्दरी ने अपनी त्रियाहठ मेरे समक्ष व्यक्त की
थी।
मैं भी प्यार में अन्धा होकर अपनी चौर-विद्या पर अभिमान करता हुआ रात्रि के दूसरे पहर में यह कार्य सम्पन्न करने निकल पड़ा था । छुपते-छुपते मैं किसी तरह सेठजी के शयनकक्ष में पहुँचा था । फुर्ती से उनके गले से बड़ी सफाई से हार निकाल लिया था । इस समय लगभग रात्रिका तीसरा पहर बीत चुका था । मैं हार लेकर भागा पर हार की चमक और कदमों की आहट से
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