Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 107
________________ Xxxxxxxxxxx परीपह-जयीxxxxxxxx होकर वह भी उनके साथ वन की ओर चला | मुनि वारिषेण अपने बाल सखा की धर्मके प्रति रूचि जानकर उसे तत्त्व की बातें बताने लगे । उन्होंने संसार के वैभवों की क्षणभंगुरता ,विषयों की वेदना एवं चातुर्गति के कष्टों को समझाते हुए सप्ततत्व के श्रद्धान की चर्चा की। पुष्पडाल ने कुछ दूर तक महाराज की बातें ध्यान से सुनी । फिर उसका मन लौटने केलिए व्याकुल होने लगा । सोचने लगा -“अरे मैं तो शिष्टाचार वश इन्हें धर्म मैत्री एवं व्यवहार के नाते कुछ दूर तक विदा करने आया था । अपनी पत्नी से 'अभी आता हूँ कहकर आया था । पर ये तो लौटने को कहते ही नहीं हैं । अब क्या करूँ ।" . उसने महाराज से परोक्ष रूप से लौटने की जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा -“महाराज हम लोग शहर से बहुत दूर आ गये हैं । देखिए यह वही सरोवर है । जहाँ हम लोग बचपन में तैरने आते थे । हम लोग इसी के किनारे इस वन में छायादार वृक्षों की छाया में खेलते थे । यह मैदान भी वही है । जहाँ सखाओं के साथहम लोग धूममचाते थे । " पुष्पडाल पुराने स्मृति चिन्हों को दिखा दिखा कर यह सूचित करना चाहता था कि वे कितने आगे आ चुके हैं । __ पर मुनि महाराज तो मौन होकर चले जा रहे थे । उन्होंने एक बार भी पुष्पडाल को लौटने को न कहा । शिष्टाचार वश पुष्पडाल भी स्पष्ट शब्दों में लौटने का आग्रह न कर सका । मुनि वारिषेण ने तो उसे वैराग्य का महत्व समझाते हुए अनुप्रेक्षा भावों पर गहन उपदेश दिया । ___महाराज के उपदेशों का पुष्पडाल पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसने उसी समय उनसे दीक्षा ले ली । वह भी वारिषेण के साथ मुनि हो गया । उसने गहन शास्त्राभ्यास किया ज्ञानकी उपलब्धि की । वह संयम का पालन तो करता पर चित्त न लगता । उसकी समाधि में स्थिरता न आती | उसे पत्नी की स्मृति सताती । बार बार उसकी छवि आँखों के सामने नाचने लगता। उसे निरन्तर पत्नी की स्मृति हो आती । वासनायें उस पर हावी हो जाती । पुष्पडाल को मुनिवेश धारण किए बारह वर्ष बीत गये । पर उसका मन अभी भी पत्नी की For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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