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--** परीपह-जयी xxxx स्मृति में अटका हुआ था ।
मुनि वारिषेण ने बारह वर्ष के पश्चात पुष्पडाल मुनि को तीर्थयात्रा पर चलने का आदेश दिया । दोनों गुरू शिष्य तीर्थाटन के लिए निकल पड़े । तीर्थदर्शन करते-करते वे राजगृही विपुलाचल पर भगवान वर्धमान के समवशरण में पहुँच गये ।
“संसार में वासनाओं में डूबे नर-नारी सदैव व्याकुल रह कर देह-सुख के लिए ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो उन्हें नर्कों की वेदना ही देते हैं । पति-पत्नी के वियोग की स्थिति उन्हें धर्म से च्युत कर देती है । अरे पति के वियोग में स्त्री कामातुर होकर दुष्कृत्य का आचरण करने लगती है । संयम से च्युत व्यक्ति सदैव वासना की ज्वाला में दग्ध होता रहता है ।" प्रसंग वश गणधरदेव विषयातुर जीव की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाल रहे थे।
___ मुनि पुष्पडाल पर इसका उलटा ही प्रभाव पड़ा । वे जीवन के बारह वर्ष पीछे अतीत में खो गये । उन्हें दिखाई देने लगा वह दिन जब वे मुनि वारिषेण को शिष्टाचार वश कुछ दूर तक विदा करने आये थे । पत्नी से तो उन्होंने तो यही कहा था कि 'अभी आता हूँ '। उनका मन सोचने लगा – “अरे मैंने पत्नी को विरह की अग्नि में झोंक दिया है । मैंने पत्नी को बताये बिना दीक्षा ले ली । वह
विचारी मेरे विरह में कितनी दुखी हो रही होगी ? क्या उसकी स्थिति मेरे • वियोग में विक्षिप्त होगी ? क्या वह जीवित होगी. ? अरेरे मेरे कारण उसका
जीवन ही बर्बाद हो गया । मैंने भावुकतावश वैराग्य ले लिया पर प्रियपत्नी का विचार ही नहीं किया । उसके दुख या निधन का कारण मैं ही हूँ।" इस प्रकार सोचते सोचते उनका मन काम-पीड़ा से तपने लगा । समवशरण जैसे पवित्र स्थानपर भी उनका चेहरा उदास हो गया ।
वारिषेण महाराज ने क्षणभर में ही उनके चेहरे की उदासी पढ़ ली और अपने ज्ञान से उनके मन का कारण भी जान लिया । वारिषेण मुनि ने सोचा कि “मुनि पुष्पडाल इतने वर्षों के पश्चात भी काम-वासना से मुक्त नहीं हो सके । इन्हें पुनः सच्चे वैराग्य के पथ पर आरूढ़ करना होगा ।"
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