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****परीषह-जयी*-*--*-* -*
इस ममतामयी दृश्य को देखकर पूरा जनसमूह अश्रु से प्लावित हो रहा था । कठोर हृदय राजा भी अब वात्सल्यमयी पिता की भांति अश्रु बहा रहे थे । उन्होंने दौड़कर प्रियपुत्र को छाती से लगाकर कहा
“प्रिय पुत्र तुम धन्य हो । क्रोध के वशीभूत होकर मैंने पूरी जांच पड़ताल किए बिना तुम्हें मृत्युदण्ड देने का अपराध किया है । तुम मेरे बेटे हो, पर आज मैं तुमसे क्षमा याचना करता हूँ। ".
“पिताजी ऐसा न कहें । मुझे पाप-पंक में न घसीटें । आप पूज्य हैं । राजा हैं । आपने कोई गलती नहीं की । वास्तव में आपने अपने कर्तव्य का पालन किया है । " वारिषेण ने पिता के सामने नतमस्तक होकर कहा ।
___ “नहीं बेटे ! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है । मेरा मन पश्चात से ,अपने कुकृत्य से जल रहा है । मैंने पापकर्म किया है । "
“नहीं पिताजी आपने न्याय किया है । कोई पाप कर्म नहीं किया । हाँ,यदि पुत्र प्रेम के वशीभूत होकर आप मुझे दण्ड न देते तो अवश्य आप पर अन्यायी होने का पक्षपाती होने का दोषारोपण होता । उल्टे आपकी न्याप्रियता से जन-जन के हृदय में आपकी निष्पक्ष न्याय-प्रियता के कारण आपके प्रति आदर बढ़ा है आपने तो धर्म एवं न्याय प्रियता की प्रतिष्ठा बढ़ाई है । पिताजी आपने तो मुझे दंड देकर स्वयं को अन्याय के कलंक से बचाया है । आपको प्रसन्न होना चाहिए | " ___"बेटा मैं प्रसन्न तो हूँ तुम्हारी सच्चाई ,सचरित्र एवं सद्भावना से । पर लज्जित हूँ अपने आप से । " पश्चाताप में डूबे महाराज ने पुनः आत्मग्लानि से कहा ।
“नहीं पिताजी ऐसा न कहें । यह तो मेरे ही पूर्व अशुभ कर्मों का प्रतिफल था । जिसके कारण निरपराधी होते हुए भी मुझे अपराधी बनना पड़ा । कर्मों का फल तो भोगना ही था । यह तो एक उपसर्ग ही था । पर ,आपके चरणों की कृपा से एवं जैनधर्म के प्रभाव से मैं उसमें से सफलता पूर्वक पार हो सका । " कहते-कहते वारिषेण पिता के चरणों में झुक गया ।
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