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परीपह-जयी
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शर्म की बात है, तुम हम लोगो की आँखों में यह धूल झोंकते रहे कि तुम बड़े धर्मात्मा हो । तुमने श्मशान में जाकर ध्यान और तप का ढोंग रचाया । सब लोगों में यह विश्वास भर दिया कि तुम्हें किशोरवस्था में ही आत्मचिन्तन की चाह है । यौवन में जब सभी भोग-विलासों की ओर दौड़ते हैं, उस समय तुमने संयम की साधना से अपने आपको आत्मा की ओर मोड़ दिया है । इस प्रकार के विश्वास की आड़ में तुमने यह चोरी का नया घृणापूर्ण कार्य प्रारम्भ कर दिया ?” महाराज के इतने व्यंगपूर्ण कथन को और भर्त्सना को वारिषेण उसी शांत भाव से मौन रहकर सुनते रहे ।
“बेटा वारिषेण हम सब को तुम्हारे तप, त्याग और चारित्र पर बड़ा गौरव था । सारे राज्य में तुम्हारे शील स्वभाव की, वाणी की, नम्रता और सचारित्र की चर्चा ही नहीं, उदाहरण भी प्रस्तुत किये जाते हैं; फिर यह सब कैसे हो गया ? रानी चेलनी ने पुनः पुत्र को समझाते हुए सत्य को जानने की
,
चेष्टा की ।
वारिषेण कुमार फिर भी मौन थे । वे तो बस भगवान जिनेन्द्र का स्मरण कर रहे थे । इस घटना को उपसर्ग जानकर मौन थे ।
कमरे में मौन छा गया । सभी अप्रत्याशित घटना से स्तब्ध थे । वारिषेण को बन्दी बनाकर लाये हुए सैनिक, महारानी चेलना, सभी महाराज के तमतमाये हुए चेहरे को देखकर किसी आगत अनिष्ट की कल्पना से भयभीत थे ।
वारिषेण कुमार श्री कीर्ति सेठ का हार चुराने के अपराध में बन्दी बना लिये गए हैं । यह समाचार वायुवेग से राजभवन के कक्ष से बाहर दुर्ग के प्राचीरों को लांघ कर पूरे राजगृही में फैल गया था । जो भी सुनता वह आश्चर्य में डूब जाता, और जितने मुँह, उतनी बातें हो रही थीं ।
"ऐसा नहीं हो सकता । राजकुमार को धन की क्या कमी है ? अवश्य यह कोई षड्यन्त्र है । एक नागरिक कह रहा था ।
"
"भाई सब कुछ संभव है । धन का लोभ किसे नहीं होता ? " दूसरे ने
कहा ।
"
"लेकिन भाई वापिषेण तो बड़े ही नेक चरित्र युवराज हैं । वे तो यौवन के वसन्त काल में भी श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग करते हैं । ऐसे निस्पृही को चोरी से क्या प्रयोजन ? " एक नागरिक ने कहा ।
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