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परीषह - जयी
भी भोगना पड़ा है | विश्वास रखो कि हम स्वयं कर्मों के कर्ता हैं और भोक्ता भी । ऐसा नहीं है कि कर्म हम करें और परिणाम कोई और दे । जैनधर्म ही यह डंके की चोट कहता है कि मनुष्य ही कर्ता और भोक्ता है । मनुष्य की आत्मा में वह शक्ति है कि वह भी स्वयं भगवान अर्थात् सिद्ध की भाँति मोक्ष प्राप्त कर सकता है । हर प्राणी में मुक्ति-प्राप्ति की शक्ति है - यदि वह अपने कर्मों का क्षय अपने तप द्वारा करे तो ।
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भाईयों ! जैनधर्म किसी भी धर्म के प्रति असहिष्णु भी नहीं है । वह सबका आदर करता है । स्याद्वाददृष्टि उसकी सबसे महान समन्वयात्मक दृष्टि है। इसका अर्थ है कि सभी तथ्यों - सत्यों को जानकर परम सत्य तक पहुँचना क्योंकि सत्य शाश्वत होता है । आप लोग भी ईश्वर की आराधना मुक्ति के लिए करें - संसार के लिए नहीं । आप सब धर्म के प्रति आस्थावान बनें यही मेरा आशीर्वाद है ।
इस चमत्कार से एवं महाराज की अमृतवाणी से राजा शिवकोटी एवं सभी पर गहरा प्रभाव पड़ा । उन लोगों ने पुनीत जैनधर्म का स्वीकार किया । अनेक लोगो ने व्रत धारण किए । चमत्कार तो यह हुआ कि महाराज शिवकोटी ने स्वयं वैराग्य से प्रेरित होकर जिनेश्वरी दीक्षा लेने की भावना व्यक्त करते हुए महाराज से दीक्षा देने की प्रार्थना की ।
सारे नगर में यह समाचार वायुवेग से फैल गया । हजारों लोग इस अनुपम दृश्य को देखने दौड़ पड़े । हजारों लोगों की उपस्थिति में महाराज शिवकोटी ने दिगम्बरी दीक्षा धारण की । वातावरण जयनाद से भर गया । उनके साथ सैकड़ों लोगों ने वैराग्य धारण किया ।
यही मुनि शिवकोटी शास्त्रों का अभ्यास कर महान विद्वान, श्लोक रचियता बने । इनके ज्ञान और वाणी से अनेक लोगों का उपकार हुआ ।
लोगों ने देखा कि मुनि समन्तभद्र निराकार, निर्विकार भाव से जंगल की ओर प्रयाण कर रहे हैं । बस अब तो शेष थी उनके चरणों की अमिट छाप ।
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