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XXXXXXXपरीषह-जयीXXXXXXX
लिये। इस परिवर्तन से उन्हें बड़ा दुःख हुआ । लेकिन इसके अलावा और कुछ उपाय भी नहीं था । अब वे दिगम्बर जैन साधु की जगह वस्त्रधारी सन्यासी लग रहे थे।
___ मुनि समन्तभद्र उत्तम भोजन की प्राप्ति की खोज में कान्ची से निकलकर पुण्द्रनगर में आए । इस नगर में बौद्ध धर्म का अच्छा प्रचार था । उनका मठ था,और बहुत बड़ी दानशाला थी। ___“यह स्थान मेरे लिए उपयुक्त होगा । मुझे यहाँ पर्याप्त और उचित भोजन मिलेगा । मुझे यहाँ बौद्ध साधु के वेश में रहना पड़ेगा । " यह सोचते हुए समन्तभद्र ने बौद्ध साधु का वेश धारण किया और दानशाला में प्रवेश किया । वहाँ कुछ दिन रहे ,परन्तु वहाँ भी उन्हें वह योग्य भोजन नहीं मिला ,जो उनकी व्याधि को शान्त कर सके । अतः कुछ दिनों में ही उन्होंने वह स्थान छोड़ दिया। अनेक स्थानों में उन्होंने अनेक प्रयत्न किए ,परन्तु उनकी व्याधि-आकांक्षा कही पूर्ण नहीं हुई । वे देशाटन करते हुए दशपुर मन्दोसोर में आये । यहाँ पर वैष्णवों का विशाल मठ देखा । और वे सोचने लगे कि – “यह मठ भागवत सम्प्रदाय के वैष्णवों का है । यहाँ अवश्य माल मलीदा खाने को मिलेगा । मुझे वैष्णव साधु का स्वांग धारण करना पड़ेगा । " यही सोचकर उन्होंने बौद्ध साधु का वेश त्याग कर वैष्णव साधु का वेश धारण कर लिया । और महन्त के रूप में वैष्णव मठ में प्रवेश किया । वे जिस उद्देश्य से इस मठ में आये थे, वह उद्देश्य पूर्ण न हो सका । यद्यपि उन्हें अच्छा भोजन मिल रहा था । परन्तु वह पर्याप्त नहीं था । वहाँ से भी वे निकल कर देशाटन करते हुए बनारस नगरी में पहुँचे । बनारस जो विद्वानों की नगरी थी । जहाँ पर सैकड़ों शैव मंदिर थे । समन्तभद्राचार्य यद्यपि छद्मवेशी रूप धारण कर साधुवेश में घूमते रहते । परन्तु उनका मन निरन्तर पंचपरमेष्टी के ध्यान में लगा रहता । भूख के रोग से वे परेशान तो थे ही।
एक दिन नगर में घूमते-घूमते विशाल शिव मंदिर के निकट पहुँचे । वहाँ उन्हें ज्ञात हुआ कि मंदिर का निर्माण बनारस के महाराज शिवकोटी ने करवाया है । मंदिर अति भव्य था । जिसके कंगूरें वास्तु कला का उत्तम नमूना था । जिसके कलश की स्वर्णिम आभा गगन को चूम रही थी । वर्षों की
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