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XXXXXXXX परीषह-जयीXXXXXXXX
“इस व्याधि से मुक्ति का एक ही उपाय है कि मैं सल्लेखना धारण कर इस देह को ही छोड़ दूँ ।" इस प्रकार चिन्तन में डूबे हुए समन्तभद्राचार्य को आधी रात तक नींद नहीं आयी वे निरन्तर सोचते कि मैं मेरे पास अब सल्लेखना के सिवाय कोई उपचार नहीं है । इसी सोच में उन्हें एक झपकी सी लग गई । उन्हें उस समय ऐसा लगा ,जैसे कोई उनके कानों में कह रहा है- “समन्तभद्राचार्य अभी तुम युवा हो । तुम्हारा उत्तमचरित्र लोगो के लिए प्रेरणा स्वरूप है । अभी जैनधर्म और साहित्य को तुमसे बहुत अपेक्षाएँ हैं । तुम्हें अपने बुद्धि कौशल से उत्तम साहित्य का सृजन करना है । अतः अभी सल्लेखना धारण करने की
आवश्यकता नहीं है । तम्हें अपनी व्याधि का उपचार करना होगा, चाहे इसके लिए तुम्हें दीक्षा का छेद ही क्यों न करने पड़े ? जब तुम व्याधि से मुक्ति हो जाओ,तो पुनः दीक्षा ग्रहण कर लेना । "
“ लेकिन यह छल है । शरीर के सुख के लिए मैं जिनेश्वरी दीक्षा नहीं छोड़ सकता ।" .
“समन्तभद्र मुनि महाराज आप अपनी दीक्षा का छेद अपने स्वार्थ के लिए नहीं कर हैं । फिर आप आत्मा से विकारी नहीं हो रहे हैं । आपका यह कार्य हजारों प्राणियों की सेवा और पथदर्शन के लिए होगा । " स्वप्न की आवाज में ये शब्द गूंज उठे ।।
___ “एकाएक समन्तभद्राचार्य जाग उठे । देखा ,आसपास कोई नहीं है । उन्होंने ‘णमोकार मन्त्र' का स्मरण किया और सोचने लगे अवश्य यह जिनशासन देवी का ही आह्वान था । या अवश्य यह मेरी आत्मा की आवाज थी ,जो मुझे विशाल जनहित में सल्लेखना से रोक रही है । यदि यही भवितव्य है तो फिर ऐसा ही हो ।” सोचते हुए मुनि जी ने मन ही मन कुछ विशेष निश्चय किया । पुनः सोचने लगे – “मुझे उत्तम पौष्टिक पकवान युक्त भोजन की विपुल मात्रा में आवश्यकता होगी । तभी मैं इस रोग से मुक्त हो सकूँगा । और उसके लिए मुझे छद्मवेश धारण करना पड़ेगा । "
मुनि समन्तभद्र ने मुनि के नग्न वेश को त्याग कर वस्त्र धारण कर
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