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Xxxxxxxxxxxपरीषह-जयी xxxxxxxxxx
की । यद्यपि तप द्वारा उन्हें अनेक शक्तियाँ प्राप्त हो चुकी थीं । पर वे उनका उपयोग अपने निजी बचाव या स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहते थे । जैनसाधु कभी भी अपनी अतिशयपूर्ण विद्या का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए नहीं करता। ऐसे संकट के समय वह वीतरागता का परम धारी बनकर स्वेच्छामृत्यु अर्थात् सलेखना ,धारण कर लेता है । इस मृत्यु के वरण में कहीं कोई कषाय भाव नहीं होता है । उल्टे उपसर्ग कर्ता के प्रति समदृष्टि ही बनती है ।
___ महाराज विधुच्चर ने इसे अपने ऊपर आये उपसर्ग को मानकर ,साधुजीवन की परीक्षण की घड़ी मानकर सल्लेखना धारण कर ली एवं पूर्ण रूपेण आत्मा में स्थिर हो गये । वे देह से देहतीत हो गये । अब उन्हें महसूस ही नहीं हो रहा था कि उनकी देह पर कोई कष्ट भी हो रहा है |ज्यों-ज्यों जहरीले कीड़े उन्हें इंसते त्यों-त्यों वे और अधिक देह से ममत्व मुक्त होते जाते । शरीर पर लाखों डंख के घाव हो गये ।शरीर से रक्त की उष्ण-धारा बहने लगी । कई स्थानों से माँस के लोथड़े टपकने लगे । इस विभत्स दृश्य को देककर दुष्ट देवी अट्टहास्य कर रही थी । उसे बदला लेने का संतोष हो रहा था । महाराज विधुच्चर की देह क्षीण होती जा रही थी । पर चेहरे पर जैसे प्रकाशपुंज का वृत जगमगा रहा था । आखिर देवी और उसके जहरीले कीड़े भी थक गये । मुनि विद्युच्चर इस नश्वर देह को त्याग कर शुक्ल ध्यान में मुक्ति लक्ष्मी के स्वामी बने । वे मुक्त होकर जन्म मरण के दुःख से छूट गये । ___महाराज विद्युच्चर के इस निर्वाण से देवता भी गीत गा रहे थे । नश्वरदेह धरा पर था पर आत्मा मोक्षमें विराजमान थी ।
आखिर थक कर, अपने कुकृत्य का भार लेकर जन्म-मरण के दुःखों का भार लेकर देवी भी भाग गई ।
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