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Xxxxxxxपरीषह-जयीXXXXXXX सका। कि वे बौद्ध नहीं है । दोनों भाईयों ने बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन कर उसकी कमजोरियाँ और दर्शन की विकृतियों को जान लिया ।
उनकी विद्या और ज्ञान ने उन्हें एक बहुत बड़े संकट में डाल दिया । एक दिन गुरूजी प्रसंग वश जैनधर्म के सप्तभंगी न्याय के विषय में पढ़ा रहे थे । प्रकरण में कुछ अशुद्धि होने के कारण गुरूजी स्वयं समझ नहीं पा रहे थे । अतः विद्यार्थियों को समझाने में असमर्थ थे । अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए वे उठ कर कमरे से बाहर चले गए । इस बीच अकलंक ने गुरूजी की अनुपस्थिति में चुपचाप वह पाठ शुद्ध कर दिया । गुरूजी ने आकर उस शुद्ध पाठ को देखा और सप्तभंगी न्याय की सारी बाते स्पष्ट रूप से समझकर विद्यार्थियों को भी समझायी । गरूजी के मन में इस शद्ध पाठ को देखकर यह शंका उत्पन्न हुई कि अवश्य इन विद्यार्थियों में कोई छद्मवेशी जैन दर्शन का ज्ञाता है । वह हमारे दर्शन की कमजोरी जानकर निश्चित रूप से बौद्ध धर्म की हानि करेगा । उनके मन में यह कुविचार आया कि ऐसे गुप्त शत्रु का नाश करना ही श्रेयष्कर है ।
"कौन विद्यार्थी है जिसने यह पाठ शुद्ध किया है ? सच-सच बयान करो ।" आचार्य ने सभी विद्यार्थीयों को इष्टदेव की शपथ देकर जानना चाहा । सभी विद्यार्थी मौन रहे ।
"लो यह जिनमूर्ति तुम्हारे समक्ष है । इसे लांघकर सचसच बताओ कि यह पाठ शुद्धि किसने की थी ।" जब शपथ का कोई प्रभाव न पड़ा तब आचार्य ने जिन प्रतिमा को लांघने का उपाय सोचा । वे जानते थे कि जैन कभी भी प्रतिमा को लाघेगा नहीं । इन दोनों के अतिरिक्त शेष सभी विद्यार्थी प्रतिमा के ऊपर से निकल गए । दोनों भाईयों के मन में कठिन समस्या थी । यदि वे मूर्ति न लांघते तो प्राणों का भय था और यदि लाघते है तो पाप कर्म को बाधते हैं । परन्तु जैन धर्म की सेवा और उसके सत्य से दुनिया को परिचित कराने के लिए जीना आवश्यक था ।दोनों भाईयों ने आँखों ही आँखों में मानो एक दूसरे के संकल्प को पढ़ लिया । बुद्धिमान अकलंक ने अपनी शीघ्र बुद्धि से मार्ग खोज लिया । उन्होंने एक पतला सूत प्रतिमा पर डाल कर उसे परिगृही मान, मन ही मन पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए झपट कर मूर्ति को लाँघ गए । यह कार्य उन्होंने इतनी तीव्रता से किया कि मूर्ति पर सूत डालना कोई नहीं देख पाया ।
- गुरूजी को इस उपाय में भी जब सफलता नहीं मिली तो उनका आन्तरिक
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