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परीषह - जयी
विवाह की बात करने आए हैं। उन्हें प्रोत्साहित करते हुए पूछा । "पिताजी, विवाह की बात नहीं है । "
"फिर क्या बात है, बेटा ?" पुरूषोत्तम और पद्मावती के मुँह से एक साथ ये शब्द फूट पड़े।
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"पिताजी, हम विवाह न कर सकते हैं और न करना चाहते हैं । '
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'क्यों ? आश्चर्य से पति-पत्नी ने पूछा ।
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'पिताजी, आप को स्मरण होगा कि आप का ही साथ कुछ वर्षों पूर्व अष्टाह्निका पर्व में हमने पूज्य मुनिश्री चित्रगुप्त जी से ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया था, इसी कारण हम विवाह नहीं करेगे ।" निर्भीकता से निकलंक ने अपनी भावना व्यक्त की । अकलंक ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए । क्षणभर के लिए तो पुरूषोत्तम और पद्मावती सन्नाटे में आ गए । "बेटा, वह तो सहज हंसी थी ।
" माँ ने दुःखी स्वर में कहा । "बेटा, वह व्रत तो हमने आठ दिन के लिए ही लिया था । " पुरूषोत्तम ने समझाने का प्रयत्न किया ।
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" लेकिन पिताजी जब हम व्रत याचना कर रहे थे तब न हमने समय मर्यादा की बात कही थी और न मुनि महाराज ने हमें कुछ दिनों का व्रत दिया था । हम दोनों भाईयों ने तो आजीवन व्रत का संकल्प किया था । अकलंक ने अपने मन के निश्चय को दोहराया । '
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'बेटा, बचपन के ये व्रत एक बालमन की भावुकता से ग्रहण किए जाते है, जो तुमने हमारे साथ देखा देखी लिए थे । और हमने भी तुम्हारी बाल जिज्ञासा को जानकर सहज हंसी में तुम्हारा मन रखने के लिए व्रत दिलवा दिए थे । और • फिर वे व्रत आठ दिन के लिए थे ।
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पिताजी, पहली बात तो समय की कोई स्पष्टता किसी ने नहीं की थी । दूसरे व्रत जैसी गंभीर बात हंसी मजाक नहीं हो सकती । और फिर जैन साधु के समक्ष लिए गए व्रत को तोड़ना धर्म की हंसी उड़ाना है । पिताजी ! हमने व्रत पूरी गंभीरता से ग्रहण किए हैं । हम किसी भी परिस्थिति में, किसी भी कीमत पर उसे तोड़ नहीं सकते । हम दोनों भाई जीवन भर इसका पालन करेंगे । आप हमारे विवाह का संकल्प छोड़ दें । " निकलंक ने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा व्यक्त की । "पिताजी, भइया सच कह रहे हैं । हम दोनों आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का
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