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व्रत प्रदान करे । "
महाराज मुनिदत्त जी ने अपने ज्ञान द्वारा जान लिया कि इसकी आयु समाप्त होने को है । उन्होंने गंभीर वाणी में कहा - 'हे भव्य आत्मान् तूने व्रतधारण करने का जो विचार किया है वह योग्य ही है । मेरा निमित्त ज्ञान कहता है कि अब तेरी उम्र सिर्फ ८ दिन शेष हैं । तू व्रत धारण कर आत्मकल्याण हेतु तपाराधना में लीन बन कर मुक्ति प्राप्त कर । " कहते हुए मुनि महाराज ने चिलातपुत्र को जिनदीक्षा प्रदान करते हुए समाधिमरण का व्रत प्रदान किया। चिलातपुत्र ने उसी क्षण सभी प्रकार के आहार का त्याग कर ध्यानास्थावस्था में लीन हो गये ।
इधर राजाश्रेणिक चिलातपुत्र का पीछा करते करते वैभारपर्वत पर पहुँचे। पर यहाँ का दृश्य ही कुछ और था । उन्होंने देखा मुनि संघ विराजमान है । वहीं कुछ क्षण पूर्व का दुष्ट लंपट चिलातपुत्र दिगम्बर मुनि अवस्था में ध्यान में लीन है । पहले तो उन्हें इसमें भी उसकी चाल ही नजर आई । इसे भी एक ढोंग ही समझा । पर मुनि महाराज मुनिदत्त द्वारा उसके भविष्य के बारे में ज्ञातकर एवं वास्तविक रूप से चिलातपुत्र ने मुनिदीक्षा ली है यह जानकर उन्होंने श्रद्धासहित उन्हें वंदन किया । इसी समय उन्होंने मुनिदत्त महाराज से विनय सहित उपदेश की प्रार्थना की ।
“राजन्! सैनिकों !! जीवन का अंत मृत्युहै । मृत्यु शाश्वत सत्य है । इसके सामने कोई भी नहीं बच सका। पर, जिसने मृत्यु के क्षण सुधार लिया उसका वर्तमानभी आगम जीवन सुधर जाता है । मृत्यु के समय व्यक्ति को आर्त-रौद्र ध्यान से मुक्त होना चाहिए । संसार के भोग विलास ,वैभव परिवार मित्र सभी के मोह से मुक्त हो जाना चाहिए । मोह ही ऐसा व्यवधान है जो मृत्यु को भयवान
और विकृत बना देती है । आसन्न संकट में समाधिमरण ही श्रेयस्कर है ।जो इन मौत संसार एवं स्वयं के शरीर तक से निर्मोही बन कर आत्मा में लीन हो जाता है । उसके लिए मृत्यु महोत्सवी सी बन जाती है । ऐसा प्राणी पशु और नर्क के दुख से अवश्य छूट जाता है । हे भव्यजीवों क्रमशः मोह को क्षीण कर मुक्ति पथ के पथिक बनो । "
महाराज के वचनामृत का पान करते हुए चिलातपुत्र के अंतिम निर्णय
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