________________
-**--*-**--* परीषह-जयी x भार छोड़कर आपके यहाँ कोतवाल का स्थान ग्रहण किया । ” ।
“क्या यह बात सच है ?” महाराज ने यमदण्ड से पूछा ।
“ हाँ, महाराज यह सच है । इन्होंने मुझे मेरे पिता के स्थान पर सम्मान सहित नियुक्त किया । परन्तु मुझे यही आशंका रहती थी कि कहीं इनकी चौर्यकर्म की कुशलता मेरी फाँसी का फंदा न बन जाए । इसीलिए मैं आपके यहाँ चला आया ।"
"महाराज अपने इन्हीं मित्र को ढूढ़ने के लिए मैं यहाँ आया था । जब मैंने देखा कि ये श्रीमान ,यहाँ नियुक्त है । तो मैंने सोचा कि अपनी चौर्यविद्या की श्रेष्टता सिद्ध करने का यही आवसर है, और मैं उसे श्रेष्ठ भी सिद्ध कर सका । इससे मुझे दो लाभ हुए हैं, एक तो अपनी कुशलता सिद्ध करने का मौका मिला दूसरे मार खाकर अपनी सहनशक्ति का परीक्षण करने का मौका मिला । महाराज मैं आप से कुछ मांगना चाहता हूँ । " विद्युच्चर ने विनय से महाराज से कहा ।
“कहिए महाराज विधुच्चर क्या आदेश है ?"
महाराज वामरथ ने सबकुछ जानकर विद्युच्चर को महाराज कहकर सम्बोधित किया ।
"महाराज आप मुझे शर्मिन्दा न करे । मैं तो आपका अभियुक्त हूँ । मैं चाहता हूँ कि आप मेरे मित्र कोतवाल यमदण्ड को मेरे साथ लौट चलने की आज्ञा दे मैं अपने मित्र और कुशल कोतवाल को राज्य की सुरक्षा सौंप कर आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ होना चाहता हूँ ।” महाराज ने ,महाराज विद्युच्चर को सम्मान ,भेंट ,सौगात सहित यमदण्ड कोतवाल के साथ विदा किया। विद्युच्चर अपने मित्र को लेकर अपनी राजधानी में लौट आये ।
महाराज विद्युच्चर और कोतवाल यमदण्ड वेनातट नगरी में लौट आये । राज्य की सुरक्षा की बागडोर यमदण्ड ने सम्हाल ली । एक दिन विद्युच्चर ने अपने पुत्र, कोतवाल एवं अन्य वरिष्ठ पदाधिकारियों को अन्तःपुर में बुलाकर कहा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
- www.jainelibrary.org