Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 70
________________ परीषह - जयी एवं उसकी दृढ़ता की सराहना करते हुए महाराज श्रेणिक अपने सैनिकों के साथ राजगृही लौट आये । 1 , कल के हिंसक दुष्ट चिलातपुत्र की दिशा एकाएक बदल गई । आज वे पुनीत साधु के वेश में आत्मकल्याण में पूर्ण समर्पित थे । उनके जीवन में अंधकार के स्थान पर पूर्ण प्रकाश फैल चुका था । अब वे देह से देहातीत बन चुके थे । उन पर अब शर्दी, गर्मी, बरसात का कोई प्रभाव नहीं था । भूख प्यास पर वे विजय पा चुके थे । जीवजंतुओं का संत्रास उन्हें नहीं सता पाता था । उनका पूरा ध्यान आत्मा के साथ एकाकार हो चुका था । वासनापथ का भटका राही अब आत्मपथ का राही बन चुका था । कर्मों का क्षय वे तापग्नि द्वारा कर रहे थे । पूर्वकर्म अपना फल दिए बिना कब रहते हैं ? पूर्व पाप कर्म अपने उदय में आ रहे थे । अपनी वासना की तृप्ति एवं विवाह की लालच में जिस सुभद्रा नामक कन्या का अपहरण कर उसे मौत के घाट उतारा था, वह सुभद्रा अकाल मरण के कारण व्यंतरी हो गई थी । उसी वन प्रांतर में विचरण करती थी । “अरे यह तो वही राजकुमार चिलातपुत्र है जिसने मेरा अपहरण किया था । जिसके पाप के कारण मेरे हाथों की मेहदी ही धुल गई थी । जिसकी वासना के कारण मैं सुहाग का सिन्दूर नहीं भर सकी थी । यही तो हैं वह दुष्ट जिसने अपनी जान बचाने के लिए मेरी अकाल हत्या कर दी थी । " व्यतंरी ज्यों-ज्यों मुनि चिलातपुत्र के निकट आती गई त्यों-त्यों उसकी पूर्व स्मृतियाँ सतेज होती गई । उसे गत जीवन की अपहरण से मृत्यु तक की सम्पूर्ण घटना चलचित्र सी दिखाई देने लगी । वे स्मृतियाँ उसमें क्रोध, वैरभाव बढ़ाने लगी । उसका मन बदले की भावना से भर गया । उसका मन रौद्र भावों को धारण करने लगा । नफरत और क्रोध ने उसके नेत्रों को लाल कर दिया । नथुने फड़कने लगे । बस बदला-बदला एक ही भाव उमड़ने लगा । वह यही विचार करने लगी- “ आज अपने ऊपर किए गए अत्याचारों का व्याज सहित बदला लूँगी । देखो ढ़ोगी को कैसा रूप बनाकर बैठा है । " सोचते सोचते व्यतंरीदेवी ने अपनी विद्या से चील का रूप धारण कर लिया । " I चील- - स्वरूप - धारिणी व्यतंरी मुनि चिलातपुत्र के सिर पर आकर बैठ Jain Educationa International ६९ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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