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परीषह - जयी
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पड़ेगी | इस प्रकार तर्क-वितर्क में कोतवाल रात भर करवटे बदलता रहा । दूसरे दिन कोतवालने कोढ़ी को महाराज के सामने पेश किया । “कहिये कोतवाल जी, आप के अपराधी ने जुर्म का स्वीकार किया या नहीं । लगता है जुर्म कबूल कराने के लिए आपने अपनी पूरी शक्ति लगा दी है । कोढ़ी के सूजे हुए मुख, बहता हुआ खून, चोट के निशान और कराहने के स्वर सुन कर उसकी पिटाई का अन्दाज लगाते हुए महाराज ने अर्थ पूर्ण दृष्टि से कोतवाल को देखते हुए व्यंग से पूछा । मेरा दृढ़
"महाराज यद्यपि इसने जुर्म का स्वीकार नहीं किया है , परन्तु विश्वास है कि यही चोर हैं । " यमदण्ड ने अपनी बात दोहराई |
"महाराज मैं निर्दोष हूँ । मैंने पहले भी निवेदन किया था । मैं बारम्बार यही कहता हूँ, कि मैं चोर नहीं हूँ । मैंने चोरी नहीं की है । मुझ गरीब अपाहिज और रोगी को सताया जा रहा है । आप दयालु राजा हैं । मुझे न्याय दीजिए । मेरी जान की रक्षा कीजिए । गिड़गिड़ाते हुए कोढ़ी राजा के चरणों में गिर
पड़ा ।
महाराज असमंजस में थे । एक ओर कोतवाल अपनी दृढ़ता पर थे, पर उनके पास कोई प्रमाण नहीं था । दूसरी ओर कोढ़ी गिड़गिड़ा रहा था । महाराज ने कुछ देर तक विचार किया । फिर उन्होंने उस कोढ़ी से कहा
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"ठीक है मैं मानता हूँ कि तुम्हारे विरूद्ध कोई चोरी का प्रमाण नहीं मिला है । कोतवाल साहब भी तुम्हें चोर सिद्ध नहीं कर पाये हैं । परन्तु मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ –यदि तुम सच - सच सब कुछ बता दोगे तो तुम्हें क्षमा कर दिया जायेगा | महाराज ने कोढ़ी को मानसिक रूप से तैयार करते हुए कहा । महाराज आप तो प्रजावत्सल हैं । आपने जब अभयता का वचन दिया है तो मैं आपके समक्ष असत्य नहीं कह सकता । महाराज, वास्तव में मैं ही हार का चोर हूँ । कोतवाल जी का अनुमान तो सही था, पर वे न तो कोई प्रमाण जुटा सके और न ही मुझसे चोरी का स्वीकार करा सके । " कोढ़ी की इस स्वीकारोक्ति को सुनकर महाराज आश्चर्य में डूब गए । उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि जो कार्य कोतवाल अनेक यातनाओं के बाद भी नहीं करा सके, वह बात साधारण प्रेम सुहानुभूति और मानसिक उपचार से कराई जा सकी है। उन्हें आश्चर्य इस बात का भी था कि इतनी मार खाने के बाद भी उसने चोरी का
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