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rt परीषह-जयी
-* "भइया अकलंक हम लोगो का आजतक का सारा प्रयत्न निरर्थक हो गया। हमने धर्म की रक्षा के लिए झूठी सौगन्ध भी खाई । मूर्ति को लाघने का पाप भी किया । पर आज सब नष्ट हो गया । हम अपने ध्येय में सफल न हो सके । न तो धर्म की सेवा कर सके । हाँ ,जान से हाथ जरूर धो रहे हैं । " निकलंक ने अकलंक के सामने रो-रो कर अपने हृदय की वेदना व्यक्त की।
"भइया निकलंक रोने धोने से क्या होगा? यह तो सारा अपने ही पूर्वजन्मों का फल है । हमें इस समय पंचपरमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए । माँ सरस्वती का स्मरण करना चाहिए । हमने सौगन्ध खाई ,प्रतिमा को लाँघा उसमें हमारा निजी स्वार्थ नहीं था । हमारा उद्देश्य तो सत्य स्वरूप जैन धर्म का प्रचार करना ही था ।" अकलंक ने भाई को धैर्य बँधाते हुए समझाया ।
दोनों भाई काल कोठरी में चिन्तामग्न टहल रहे थे । तभी उन्होंने देखा कि पहरेदार मीठी नींद के वशीभूत हो गया है । शायद उसने यह सोचा हो कि लड़के हैं ,कहां भाग जाएगें ?
सुरक्षा कर्मचारी को निद्राधीन देखकर अकलंक के मन में यह विचार कौधा। क्यों न वे इसका लाभ लेकर भागकर प्राणों की रक्षा करें । दोनों भाईयों ने गुपसुप भागने का निश्चय किया और उस काल कोठरी से बाहर निकलकर भागने में सफल भी हो गए।
बौद्ध गुरू ने अर्धरात्रि के बाद दोनों भाईयों को कारागृह से लाकर वध करने का आदेश दिया । अनेक रक्षक और अनके विद्यार्थी इस तमाशे को देखने के लिए कारागृह की ओर चल पड़े । लोगों की आहट सुनकर पहरेदार हड़बड़ाकर सावधान हो गया ।
"सिपाही ! जाओ दोनों पापियों को ले आओ । उन्हें वधस्तम्भ पर ले चलो। " आचार्य ने आदेशात्मक स्वर में आज्ञा दी ।
सैनिक आदेश पालन करने हेतु उस कोठरी में गया, जहाँ दोनों भाईयों को रखा गया था । परन्तु उसने देखा कि कोठरी में तो कोई नहीं है । उसने घबड़ाकर कोना-कोना देखा । परन्तु वहाँ किसी का नामोनिशान नहीं था । सैनिक घबड़ाता हुआ ,भय के मारे कांपता हुआ ,आचार्य के सामने खड़ा हो गया । उसे अकेला आया देखकर और चेहरे पर बदहवासी देखकर आचार्य का क्रोध भड़क उठा । उन्होंने कड़कती हुई आवाज में पूछा - "क्यों सैनिक ,उन दोनों भाईयों को क्यों
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