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Akkkkkk परीषह-जयी थी कि उनका कोई वारिश नहीं- पर आज प्रभु-कृपा से शुभकर्म से उदय से वह भी पूरी हो गई । वारिश भी अवतरित हो चुका है । उन्होंने सोचा "अब मुझे विलंब नहीं करना चाहिए । मोह से छूटने का यही उचित समय है । " सिद्धार्थ का मन विकल्पों से मुक्त होकर एक दृढ़ निश्चय को प्राप्त कर रहा था । यह एक सुयोग ही था कि उसी समय अवधिज्ञान धारी तपस्वी मुनि नयन्धर भी वहीं विराजमान थे।
दूसरे दिन प्रात:काल अपनी पत्नियों ,कर्मचारियों एवं निकटम संबंधियों की उपस्थिति में सेठ सिद्धार्थ ने अपना संकल्प व्यक्त करते हुए कहा -
" परिवार के प्रिय स्वजनों मैंने आपको यहाँ इसलिए एकत्र किया है कि मैं आपकी साक्षी में यह संकल्प व्यक्त करना चाहता हूँ कि मैं अब अपने नवजात शिशु सुकोशल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उसे सेठका पद सौंप कर जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ । जबतक पुत्र बालिक नहीं होता । तबतक मेरे प्रधान व्यवस्थापक ,एवं मेरी प्रिय सेठानी जयावती सारे प्रबंध देखेगी।"
अपनी तिजोरी की चाबी जयावती को सौंपी एवं बालक सुकोशल को सेठपद का तिलक किया । उनके इस निर्णय को सुनकर सभी स्तब्ध रह गये ।
"प्राणनाथ ऐसा न करें । अभी आपकी उम्र ही क्या है ? इस यौवन में आप यह कैसा निर्णय ले रहे हैं । अभी आपके पुत्र की उम्र ही दो दिन की है । इसे बालिग होने दीजिए । " विलखते हुए जयावती एवं अन्य पत्नियों ने विनंति की।
__ "हाँ-हाँ सेठ जी सेठानी ठीक कह रही है । आप इस पुत्र को बड़ा होने दें। इसकी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करायें ,इसका विवाह करें , पौत्र का मुख देख कर ही आप ऐसा कठोर निर्णय लें । " रिश्तेदारों ने भी समझाने का प्रयास किया ।
"प्रिय जया ! भाईयों ! वास्तव में तप की उम्र ही यौवन काल है । यही श्रेष्ठ समय है । पुत्र परिवार यह सब मोह ही है । मैं उसकी परवरिश करने, उसके विवाह आदि तक रुककर मोह का ही पोषण करूँगा । मैं यह दीक्षा तो बहुत पहले ले लेना चाहता था पर उत्तराधिकारी की प्रतीक्षा में था । वह पूर्ण हो चुका है ।" सेठ ने समझाते हुए दृढ़ता से कहा । पुनश्च -"कोई किसी को पालता नहीं । परवरिश करता नहीं । ये सब मोह जनित शब्दजाल हैं । होता स्वंय जगत परिणाम की दृष्टि से सब स्वकर्म का फल है । मैं अब अधिक इस मोहनीय कर्म का बंधन नहीं चाहता ।
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