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-*-*---*-* परीषह-जयी xxxxxx
पत्नियाँ चरणों में लोट गई । जया ने तो पुत्र को ही चरणों में रख दिया । पर मोह के पर्दे से मुक्त सिद्धार्थ के लिए यह सब बेकार था । पत्नी के आंसू,पुत्र की मुस्कराहट ,सेवको का अनुनय ,संबंधियों की सलाह सब निरर्थक थी । देह से भी अब जिनका ममत्व टूट रहा था उन्हें दूसरों का ममत्व क्या बाँधता । अपने निर्णय में दृढ़ सिद्धार्थ ने अपने कदम घरसे बाहर रखते हुए इतना ही कहा, "अच्छा आप सभी से मैं क्षमा याचना करता हूँ । मन वचन कर्म से आप लोगों को कष्ट हुआ हो तो क्षमा करें । मोह को त्याग कर भगवान जिनेनुदेव वे चरणों में अपना मन लगायें।"
क्षण में ही इस माया के मोह को छोड़कर सिद्धार्थ अब गृहत्यागी बन चुके थे । जिस देह पर कीमती वस्त्राभूषण होते थे । वहाँ अब सिर्फ एक वस्त्र था पाँव नंगे थे । वे धीरे-धीरे उस उद्यान की ओर बढ़ रहे थे जहाँ मुनिश्री विराजमान थे। उनके पीछे-पीछे सारा परिवार और वे सभी चल रहे थे जिन्होंने इस समाचार को सुना था । __ महाराज श्री को नमोस्तु कह कर सभी लोग बैठ गये ।
"महाराज मैं संसार के भोग-विलास को तिलांजलि देकर आपकी शरण में आया हूँ । मुझे दीक्षा देकर वह मार्ग प्रशस्त करे जिससे मैं आत्म कल्याण कर सकूँ।" सेठ सिद्धार्थ ने महाराज से विनय की । . धर्मलाभ कहते हुए नयन्धर महाराज ने आत्मा के अमर स्वरूप का वर्णन करते हुए सभी को संबोधन किया । चिरसुख अर्थात् जन्म-मरण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए उसके महत्व को समझाया । मोह के कारण चतुर्गति में भटकने वाले इस जीव को कैसे-कैसे दुःख देखने पड़ते हैं उसकी भयानकता को उदाहरण देकर समझाया।
पश्चात विशाल जन समुदाय की उपस्थिति में सेठ सिद्धार्थ को दिगंबरी दीक्षा प्रदान की । थोड़ा सा भी कष्ट जिन्हें सहन नहीं था भोंगों में जो पले थे, आज वे अपने ही हाथों अपने केश लुंचन कर रहे थे । परिषहजयी बन रहे थे । लोग जयजयकार से आकाश को गुंजा रहे थे । कल तक के सेठ आज आत्मा के सेठ बन गये थे । वे आत्म कल्याण में लीन हो रहे थे।
मोह मनुष्य को अंधा बना देता है । वह सत्यासत्य के विवेक को खो देता है । पुत्र मोह एवं स्वार्थ ने जयावती को मोहांध बना दिया । जिस जैनधर्म पर श्रद्धा
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