Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 34
________________ परीषह - जयी सुकोशल अपने पिता के व्यापार वाणिज्य में भी रूचि ले रहे थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि से व्यापार में वृद्धि होने लगी थी। उनकी विचक्षणता का लोहा बड़ेबड़े व्यापारी मान रहे थे। उनकी इस योग्यता से प्रभावित होकर अयोध्या नरेश ने उन्हें अल्पायु में ही सेठ सिद्धार्थ का नगर सेठ पद प्रदान किया। कोशल के रूप, बुद्धि की चर्चा देश देशांतर तक फैलने लगी। अनेक धनपति उन्हें अपना दामाद बनाने के स्वप्न देखने लगे। आये दिन जयावती क पास दूर-दूर से सेठों की कन्याओं के लिए सन्देश आने लगे। कई सेठ तो स्वयं अयोध्या आकर हवेली के मेहमान बने । हवेली का स्वागत, सुकोशल के दर्शन से वे अति प्रभावित होकर मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगे कि उनकी पुत्री का भाग्य इसी घर से बँधे । सेठानी जयावती भी पुत्र को सर्वगुण सम्पन्न जानकर उसके यौवन के खिले रूप को देखकर मन ही मन अति प्रसन्न थीं। जैसी कि हर माँ की आकांक्षा होती है कि उसके बेटे का विवाह हो.. बहू घर में आये... यही भाव जयावती के मन में उमड़ रहे थे। उसका चिरसंचित साध्यपूर्ण करने का समय आ गया था। इन गुलाबी विचारों के बीच उसे पति वियोग का काँटा तो चुभती ही रहता था । सेठानी जयावती ने अपने पुत्र सुकोशल का विवाह देश के श्रेष्ठ श्रेष्ठी पुत्रियों से सम्पन्न कराया। उसने दिल खोलकर विवाह में द्रव्य का व्यय किया । चार दिन तक सारे नगर को भोज दिया गया। नगर को गरीबों को धन-वस्त्र भी दान में दिये । हवेली ही क्या पूरा नगर ही दुल्हन - सा रूप धारण कर इठला रहा था । सुलक्षणी- रूपयौवना बत्तीस पत्नियों के साथ अनेक भोग भोगते हुए सुकोशल के दिन व्यतीत होने लगे। सेठानी ने हर बहू को गहनों से तो लाद ही दिया था सबको अलग-अलग विशाल सुविधा युक्त निवास एवं मौज - शौख के सभी साधन उपलब्ध करा दिये थे । वे चाहती थीं कि उनका बेटा सुकोशल रूपयौवन की मस्ती में इतना खो जाये कि उसे संसार के दुःखों की आंच तक न लगे । उसने बहुओं को इशारे से समझा दिया था कि वे अपन पति को प्रेम पास में बराबर कस लें । बहुएँ भी अपने हाव-भाव, साज- ऋगार, भोग-विलास, गीत-संगीत से सुकोशल को सदैव आकर्षित किए रहती थीं। दिन बड़े ही आनंद से बीत रहे थे। Jain Educationa International ३३ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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