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Addrdxxxपरीषह-जयीxxxxxxxx बहना चाहती है। उसके हृदय में वैराग्य का सूर्योदय मोह के बादलों को चीरकर उदित होने के लिए मचल रहा था। उसने मुनि श्री के चरणों में भक्ति स्वरूप वन्दना की और चरणों में बैठकर धर्म के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। महाराज ने चेहरे पर जिज्ञासा और श्रद्धा जानकर उसे श्रावक और गृहस्थ धर्म को समझाते हुए कहा- "हे भव्य जीव! हर गृहस्थ को अणुव्रत का पालन करते हुए क्रमशः संसार के भोगों को छोड़ते हुए आत्मोन्नति के लिए श्रमण धर्म का पालन करना चाहिए । उसे बारह व्रतों की साधना करते हुए बाईस परिषहों को प्रसन्नता से सहन करना चाहिए। मोह ही बन्धन का कारण है, यह जीव उसी से कषायों में प्रवृत्त होता है और भव-भव-भ्रमण करते हुए अनन्त दुःखों को भोगता है। यदि हम इन दुःखों से मुक्ति करते है तो हमें जन्म-मरण के दुःख से मुक्त होना होगा। और यह मुक्ति ध्यान-तप से ही सम्भव है। यही अनन्त सुख है।"
मुनि महाराज का हर शब्द सुकोशल बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह एकएक शब्द रचा की बूँद सा हृदय सीप में सँजो रहा था। वह महसूस कर रहा था कि उसके अंदर कोई परिवर्तन करवट ले रहा है। उसके मन में दृढ़ता का पिंड बन रहा था। उसने मन ही मन संकल्प किया कि वह जन्म-मरण से मुक्ति के अनंत सुख को पाने के मार्ग का अनुशरण करेगा। उसे गृहस्थजीवन, उसके भोग-विलास जैसे अंदर ही अंदर डंसने लगे।
कुछ समय ऐसे ही बीत गया। कब मुनिजी का प्रवचन पूरा हो गया.... उसे सुधि न रही। कुछ समय बाद सुकोशल ने अपनी आँखें खोली और बड़े ही विनम्र स्वर में बोला -"महाराज! मैं इससंसार की मोह माया को छोड़कर मुक्ति पथ पर आरूढ़ होने की आपसे आज्ञा चाहता हूँ कृपया मुझे भी वह मार्ग बतायें जिस पर आप चल रहे हैं।
"वत्स! तुम्हें अपनी माँ - कुटुम्ब परिवार से आज्ञा लेनी होगी।''मुनिश्री ने उसे समझाया । अपने मन में दृढ़ संकल्प लिए सुकोशल घर लौटे।
आज सुकोशल के चेहरे पर विचित्र सा परिवर्तन माँ जयावती एवं पलियों ने देखा। सभी कर्मचारी इस परिवर्तन को निहार रहे थे। धाय माँ सुनन्दा चेहरे के परिवर्तन को पढ़कर समझ रही थी।
"बेटा! तम आज इतने अप्रसन्न क्यों हो ? क्या किसी ने कछ कह दिया
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