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परीषह - जयी
"बेटी तेरे गर्भ मे पुत्र पल रहा है । यह महान पुण्यशाली अच्युत स्वर्ग का देव चय कर आया है । यह पुत्र अत्यन्त बुद्धिमान एवं अनेक गुणों का धारक होगा | जिनधर्म की श्रद्धा से परिपूर्ण ही नहीं होगा अपितु उस मार्ग का अनुशरण करेगा । और.....
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'और क्या महाराज ?' 'यशोभद्रा की आँखों और चेहरोंपर जिज्ञासा दौड़गई। "यशोभद्रा तेरा यह पुत्र तरण तारण होगा । स्वयं तो परम चारित्र धारी मुनि बनेगा ही पर इसके दर्शन से और भी लोग दीक्षा धारण करेंगे । मुनि महाराज ने सांकेतिक उत्तर दिया ।
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"महाराज मैं अर्थ नहीं समझ पाई ।" यशोभद्रा के पुनः पूछा ।
"सेठानी यशोभद्रा इस नवजात शिशुका मुख देखती ही तुम्हारे पति को वैराग्य होगा और वे मुनि दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण का पथ ग्रहण करेंगे । और यह तेरा पुत्र जब भी किसी जैन मुनि के दर्शन करेगा, इसे भी वैराग्य होगा । और यह भी उसी भविष्य कथन का पथिक बनेगा ।" मुनि महाराज ने स्पष्ट शब्दों में भविष्य कथन किया ।
भविष्य भी वैसा ही हुआ । जैन साधु के वचन झूठे नहीं हो सकते । पुत्र का जन्म होने के पश्चात उसका मुख दर्शन कर उसे सेठ-पद का तिलक कर सुरेन्द्रदत्त ने जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की ।
सेठानी यशोभद्रा को पति के विरह का दुख तो था ही कहीं पुत्र भी न चला जाये इस शंका से वे सदैव आशंकित रहती थी । जिस हवेली पर मुनि भगवंतो के चरण पड़ते थे । जिनके आहार कराने का सौभाग्य इस हवेली को मिला था वहाँ पर अब मुनियों के आगमन पर प्रतिबंध लगा दिया गया । हवेली के अंदर ही नहीं - उनके प्रवेश का तो निषेध हवेली की चैहद्दी तक कर दिया गया । वे समस्त खिड़की दरवाजे बंद कर दिए गये जिससे मार्ग पर चलने वाले पथिक न दिखाई दें । यशोभद्रा नहीं चाहती थी कि उनका पुत्र हवेली में या हवेली से दिखाई देनेवाले पथ पर भी किसी जैन मुनि को देखे । वे सोचतीं न ये मुनि को देखेगा और न उसे वैराग्य ही होगा ।
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यशोभद्रा के पास धनकी कमी नहीं थी । उन्होंने अपनी हवेलीमें उन सभी उत्तम सुख सुविधाओं को सम्पन्न करा दिया जो सुकुमाल के लिए आवश्यक थी ।
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